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संत कबीरदासजी फक्कड संन्यासी थे. जहां जब समय लगे भगवान केभजन लिखते-गाते और विभोर हो जाते. स्वयं को ईश्वर के रस में भिगोयो रखते. यही कारण था कि वह जहां होते वहां सत्संगियों की टोली जमा हो जाती.

कबीरदास जी एक स्थान पर टिककर ही डेरा जमाए रखने वाले भक्त तो थे नहीं. जहां स्थान मिला वहां डेरा जमाया, सत्संग किया और लोगों में भक्ति की अलख जगाई. फिर नए ठौर पर.

एक बार कबीरदास जी एक शहर में गए और सडक के किनारे एक रिक्त स्थान पर झोपड़ी बनाकर रहने लगे. वहीं भजन-सत्संग शुरू हुआ. धीरे-धीरे भक्तों की संख्या बढ़ने लगी.

जहां कबीरदासजी ने अपनी कुटिया जमाई थी, उसी झोपड़ी के ठीक सामने एक बहुत बडा आलीशान मकान था. वह रूपा नाम की वेश्या का धर था जहां नृत्य-संगीत और विलासिता का कार्यक्रम चलता रहता था.

वहां नगर के सारे सेठ-साहूकारों, हाकिमों, राजाओं और का आना-जाना रहता था.

कबीर ठहरे भजन-कीर्तन वाले संत. सामने घर में क्या होता है, कौन रहता है, कैसे लोग आते हैं उससे उन्हें क्या फर्क.

जो भगवान में खोया रहता हो वह आसपास की इधर-उधर की चीजों के लिए कहां से समय निकाले. संतजी तो अपनी मंडली को जुटाते और भजन-कीर्तन में मगन हो जाते.

कबीरदासजी ऊंचे स्वर में अपनी मंडली के साथ भजन की राग छेड़ते तो आवाज सामने घर तक भी जाती. उस घर में कार्य ही ऐसा होता कि उन्हें तो ईश्वर की विनती से खलल पड़नी ही थी.

भजन के बोल कानों में पड़ते तो रूपा आग बबूला होने लगती. उसके नाच-गाने में विघ्न पड़ता.

उसने कई बार कबीरदासजी को अपने चाहने वालों के हाथों संदेशा भिजवाया की संतजी अपनी झोपडी कहीं ओर ले जाएं! परंतु साधु की संगति में आकर पासा उल्टा पड़ जाता.

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