आषाढ़ मास से कार्तिक मास तक का समय चातुर्मास कहा जाता है. चार महीने भगवान विष्णु क्षीरसागर की अनंत शैय्या पर योगनिद्रा में शयन करते हैं. देवउठनी या प्रबोधिनी एकादशी को नारायण योगनिद्रा का त्याग करते हैं. उसके बाद शालिग्राम भगवान के साथ वृंदा या तुलसी विवाह कराया जाता है.

हरि संसार के पालनकर्ता हैं इसलिए हरि की शयन अवधि में कृषि के अलावा सभी शुभ कार्य जैसे विवाह आदि बंद रहते हैं. ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सूर्य के मिथुन राशि में आने पर नारायण शयन करते हैं और तुला राशि में सूर्य के प्रवेश करने पर भगवान शयन का त्याग कर जागते हैं.

चतुर्मास में यज्ञोपवीत आदि संस्कार, विवाह, दीक्षा ग्रहण, यज्ञ, गृह प्रवेश, गोदान आदि शुभ कर्म हैं त्याज्य माने गए हैं.

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क्यों होता है शालिग्राम तुलसी विवाह

पौराणिक कथानुसार जलंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान नारायण पत्थर बन गए थे और उन्होंने तुलसी की जड़ में स्थित होने का वरदान दिया था. इसलिए प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है. पुराणों में तुलसी विवाह की तिथि को लेकर कुछ भिन्नता भी है. पद्मपुराण के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी विवाह रचाया जाता है.

इस दिन भगवान विष्णु की प्रतिमा बनाकर उनका विवाह तुलसी जी से किया जाता है. विवाह के बाद नवमी, दशमी तथा एकादशी को व्रत रखा जाता है और द्वादशी तिथि को भोजन करने के विषय में लिखा गया है.

कई प्राचीन ग्रंथों के अनुसार शुक्ल पक्ष की नवमी को तुलसी की स्थापना की जाती है. कई श्रद्धालु एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन कर पांचवें दिन तुलसी विवाह करते हैं. इसके पीछे कारण यह बताया जाता है निद्रा में विवाह करा देना उचित नहीं है. जैसी श्रद्धा हो और जिस दिन परंपरा हो उस दिन कर सकते हैं आप तुलसी विवाह का आयोजन.

श्रीहरि के साथ देवतागण भी जागते हैं तो वे सबसे पहले हरिवल्लभा तुलसी को प्रणाम करते हैं. इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है.

तुलसी विवाह का अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आह्वान.

तुलसी के एक पत्ते में कैसे बिक गए भगवान ?

श्रीहरि और तुलसी के विवाह में श्रद्धालु बिलकुल वैसा ही उत्साह दिखाते हैं जैसा वे अपने घर-परिवार के विवाह में. इसी भावना से आयोजन करना चाहिए कि घर के रक्षक परमेश्वर का विवाह है तो कोई कमी नहीं होनी चाहिए. जानिए कैसे करें तुलसी विवाह-

तुलसी विवाह विधि-

देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन आमतौर पर तुलसी विवाह मनाया रचाया जाता है. जैसे हमारे विवाह के उत्सव संध्याकाल में होते हैं वैसे ही तुलसी विवाह भी सूर्यास्त के उपरांत होता है. विधि-विधानपूर्वक विवाह को संपन्न कराया जाता है. मंडप, वर पूजा, कन्यादान, हवन और फिर प्रीतिभोज, सब कुछ पारम्परिक रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है.

इस विवाह में शालिग्राम भगवान वर होते हैं और तुलसीजी कन्या होती हैं.

सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर वैसे ही करते हैं जैसे परिवार के विवाह में होता है.

सुबह-सवेरे घर की साफ़-सफाई करें, उसे रंगोली आदि से सजाएं.

शाम के समय तुलसी चौरा (आमतौर पर तुलसीजी जहां स्थापित होती हैं वहां पक्का घेरा जो होता है) के पास गन्ने से भव्य मंडप बनाएं.

उस मंडप में भगवान नारायण के स्वरुप शालिग्राम की मूर्ति रखें.

तुलसी को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाएं.

सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखें.

शालिग्राम को दोनों हाथों में लेकर यजमान लड़के के रूप में यानी भगवान विष्णु के रूप में और यजमान की पत्नी तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लें.

इस दौरान वहां उपस्थित लोग तुलसी विवाह के गीत भी गाएं. फिर तुलसी विवाह की कथा सस्वर कहें जिससे वहां उपस्थित सभी लोग सुनें.

विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है. उपस्थित सभी परिजनों और आगंतुकों को मीठा भोजन कराएं.

तुलसी विवाह की कथा

तुलसी विवाह व्रत की अनेक कथाएं दी हुई हैं. उन कथाओं में से एक कथा निम्न प्रकार से है.

एक संयुक्त परिवार में ननद तथा भाभी साथ-साथ रहती थी. ननद का विवाह अभी नहीं हुआ था. वह तुलसी के पौधे की बहुत सेवा करती थी लेकिन उसकी भाभी को यह सब बिलकुल भी पसन्द नहीं था.

जब कभी उसकी भाभी को अत्यधिक क्रोध आता तब वह उसे ताना देते हुए कहती कि जब तुम्हारा विवाह होगा तो मैं तुलसी ही बारातियों को खाने को दूंगी और तुम्हारे दहेज में भी तुलसी ही दूंगी.

कुछ समय बीत जाने पर ननद का विवाह पक्का हुआ.

विवाह के दिन भाभी ने अपनी कथनी अनुसार बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया और खाने के लिए कहा. देवी तुलसी की कृपा से वह फूटा हुआ गमला अनेकों स्वादिष्ट पकवानों में बदल गया.

भाभी ने गहनों के नाम पर तुलसी की मंजरी से बने गहने पहना दिए. वह सब भी सुन्दर सोने- चांदी के गहनों में बदल गए.

भाभी ने वस्त्रों के स्थान पर तुलसी का जनेऊ रख दिया. वह रेशमी तथा सुन्दर वस्त्रों में बदल गया. भाभी ने यह सब चुपके से कर दिया था. किसी को भी भनक नहीं लगी थी.

भाभी ने सोचा कि ननद जब ससुराल पहुंचेगी तो यह उपहार देखकर उसकी बड़ी खिल्ली होगी औऱ अपमान होगा पर हुआ उलटा.

ननद की ससुराल में उसके दहेज की बहुत प्रशंसा की गई. ऐसे उत्तम दिव्य वस्त्र-आभूषण देखकर सभी गांव वाले चकित रह गए.

यह बात भाभी के कानों तक भी पहुंची. उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि आखिर ऐसा कैसे हुआ.

वह ननद के पास गई और एकांत में उसे सारी करनी बताकर क्षमा मांगी. ननद ने कहा यह सब माता तुलसी के प्रताप से हुआ है. आप उनसे क्षमा प्रार्थना करें और उनकी सेवा करें.

भाभी को अब तुलसी माता की पूजा का महत्व समझ आया. भाभी की एक लड़की थी. वह अपनी लड़की से कहने लगी कि तुम भी तुलसी की सेवा किया करो. तुम्हें भी बुआ की तरह फल मिलेगा.

वह बार-बार अपनी बेटी को तुलसी की सेवा के लिए जोर देती लेकिन लड़की का मन तुलसी सेवा में नहीं लगता था.

लड़की के बडी़ होने पर उसके विवाह का समय आ गया. भाभी ने सोचा कि जैसा व्यवहार मैने अपनी ननद के साथ किया था वैसा ही मैं अपनी लड़की के साथ भी करती हूं तो यह भी गहनों से लद जाएगी और बारातियों को खाने में पकवान मिलेंगें. ससुराल में इसे भी बहुत मान मिलेगा और जीवन सुखमय रहेगा.

यह सोचकर वह बारातियों के सामने तुलसी का गमला फोड़ दिया लेकिन इस बार गमले की मिट्टी तो जस की तस मिट्टी ही रह गई.

मंजरी तथा पत्ते भी अपने रूप में ही रहे. वस्त्रों के स्थान पर जो जनेऊ रखा था उसने भी अपना रूप नही बदला.

कन्या विदा होकर ससुराल पहुंची तो उसकी और उसके माता-पिता की बड़ी थू-थू हुई. बारातियों ने भी भोजन न कराने के लिए बहुत कोसा.

लड़की के ससुराल वाले उसे मान न देते. उसकी दशा घर की नौकरानी से भी बुरी हो गई.

भाभी कभी भी अपनी ननद को नहीं बुलाती थी. भाई ने सोचा मैं बहन से मिलकर आता हूँ.

उसने अपनी पत्नी से कहा और कुछ उपहार बहन के पास ले जाने की बात कही. भाभी ने थैले में ज्वार भरकर कहा कि और कुछ नहीं है तुम यही ले जाओ.

वह दुखी मन से बहन के पास चल दिया. वह सोचता रहा कि कोई भाई अपने बहन के घर जुवार कैसे ले जा सकता है.

यह सोचकर वह एक गौशाला के पास रुका और जुवार का थैला गाय के सामने पलट दिया.

तभी गाय पालने वाले ने कहा- भैया आप गाय के सामने हीरे-मोती तथा सोना क्यों डाल रहे हो. यह खाने की चीज नहीं है. अपने धन को साथ रखो कहीं हम पर चोरी का आरोप तो नहीं मढ़ना चाहते हो.

भाई ने देखा तो उसकी आंखे फटी रह गईं. यह चमत्कार कैसे हो गया. वह धन लेकर बहन के घर पहुंचा और सारी बात उसे बताई.

दोनों बहन-भाई एक-दूसरे को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए. बहन ने कहा भैया यह सब माता तुलसी की कृपा से हो रहा है. मैने तुलसी की सेवा में जीवन में कोई कमी नहीं रखी. पूरे विधि-विधान से तुलसी पूजन करती हूं.

आप भाभी और अपनी पुत्री को भी यह बताएं. इससे उनके सभी दुखों का अंत होगा और सौभाग्य की प्राप्ति होगी.

भाई लौटकर आया और उसने सारी बात कही. उसके बाद से भाभी का हृदय हमेशा के लिए परिवर्तित हो गया. उसकी कन्या ने भी तुलसी आराधना शुरू की और उसका जीवन संवर गया.

जैसे गाय में सभी देवों को स्थान है वैसे ही तुलसी के पूजन से सभी देव प्रसन्न होते हैं. उनकी आराधना और सेवा से एक साथ सभी देवताओं की पूजा और सेवा हो जाती है.

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