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एक दिन अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने जलविहार पर जाने का मन बनाया. दोनों यमुना के किनारे जल विहार करने लगे. काफी देर तक यमुना में जलविहार का आनंद लेने के बाद वे एक स्थान पर बैठे ही थे कि तभी वहां एक ब्राह्मण आया.

ब्राह्मण के मुखमंडल पर दिव्य तेज तो था लेकिन उसका शरीर जर्जर हो गया था. उसके शरीर की आभा और शरीर के बल दोनों में कोई सामंजस्य ही न था इस कारण वह विचित्र दिखता था.

उस ब्राह्मण ने दोनों से कहा- मैं एक ब्रह्मभोजी ब्राह्मण हूं. मैं लंबे समय से भूखा हूं. आप दोनों राजपुरुष हैं इसलिए मैं आपसे भोजन की भिक्षा मांगने आया हूं. मेरी भूख मिटाकर मुझे तृप्त करें.

श्रीकृष्ण और अर्जुन ने ब्राह्मण से पूछा- हम आपकी तृप्ति अवश्य कराएंगे. आपकी काफी दिनों से तृप्ति नहीं हुई है अतः आप अपनी इच्छा बताएं. किस प्रकार के अन्न से तृप्ति होगी हम उसका ही प्रबंध करेंगे.

तब ब्राह्मण ने अपना राज प्रकट किया- मैं साधारण ब्राह्मण नहीं हूं. मैं अग्रि हूं. आप मुझे वही अन्न प्रदान कीजिए जो मेरी क्षुधा को शांत करने योग्य है. मेरी क्षुधा खाण्डव वन को खाकर शांत होगी लेकिन मैं सात बार उसे जलाने का असफल प्रयास कर चुका हूं.

इस वन में तक्षक नाग और उसका परिवार रहता है. इसलिए इन्द्र हमेशा उस वन की रक्षा करते हैं. जब-जब मैं इस वन को जलाने की कोशिश करता हूं तब-तब इन्द्र मेरी इच्छा पूरी नहीं होने देते.

आप लोगों की सहायता से इसे जलाकर क्षुधा शांत कर सकता हूं. संसार में आपके अतिरिक्त कोई और इसमें सहायता नहीं कर सकता. मैं इसी भोजन की याचना करता हूं.

हे वासुदेव कृष्ण आपसे क्या छुपा है. आप तो भली-भांति जानते हैं कि मैं खांडव वन को ही जलाकर क्यों अपनी क्षुधा शांत करना चाहता हूं. इसमें यदि मेरा हित है तो पांडवों का भी हित सिद्ध होने वाला है.

ब्रह्माजी ने मुझे बताया है कि इसमें हमारा परस्पर परोपकार होने वाला है और भविष्य की एक बहुत बड़ी घटना की पृष्ठभूमि लिखी जानी है. अतः आप कृपा करें.

खांडववन को जलाकर पांडवों को क्या लाभ हुआ यह तो हम सभी जानते हैं पर इसमें अग्नि का भी लाभ था? ब्रह्माजी ने ऐसा क्यों कहा था?

पांडवों का तो खांडव आगमन अभी-अभी हुआ था परंतु अग्नि सात बार पहले उसे जलाने का असफल प्रयास क्यों कर चुके थे आइए आपको सुनाता हूं महाभारत की वह अनसुनी रोचक कथा.

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