पिछली कथा से आगे…
मंत्री विपश्चित ने कथा सुनानी शुरू की- राजा पूर्व जन्म में विराधनगर के एक धनी वैश्य हुए. इनका नाम विश्वंभर और इनकी पत्नी का नाम सत्यमेधा था. दोनों निरंतर धर्म कार्य करते थे.

एक बार इन्होंने अपने बंधु-बांधवों के साथ तीर्थयात्रा की और लौटते समय लोमश ऋषि का आश्रम पड़ा तो उनके दर्शन को गए. लोमश ऋषि ने पूछा कि आप कहां से आ रहे हैं?

वैश्य ने सैकड़ों छोटे-बड़े तीर्थों के नाम गिनाकर कहा कि इन तीर्थों से मुझे प्रतीत होता है कि मैं अब पवित्र हो गया हूं. परंतु अंतरिक और बाह्य दोनों स्तर पर मैं पवित्र हुआ या नहीं, यह तो आप जैसे ज्ञानी ऋषि ही बता सकते हैं.

लोमशजी बोले- यह मन बहुत चंचल, विकार वाला और अपने को ही धोखा देने वाला है. आंतरिक और बाह्य पवित्रता के लिए तीर्थ और स्नान से भी आवश्यक बात जो है वह गूढ बात मैं बताता हूं.

तुम नारदजी की कथा सुनो जो उन्होंने स्वयं मुझे कभी सुनायी थी. पूर्वजन्म में नारदजी एक कुलीन ब्राह्मण के दासीपुत्र थे. वहां विद्वान ब्राह्मण और महान पुण्यात्मायें आती रहती थीं.

एक बार उनके गृहस्वामी के यहां सिद्ध साधु लोग कहीं से आकर ठहरे हुए थे. नारदजी को अनायास ही उनके सत्संग का अवसर मिला. उन्होंने उनकी सेवा में कोई कोर कसर न उठा रखी.

नारदजी की सेवा से प्रभावित होकर साधुओं ने ज्ञान दिया कि तुम्हें आचारवान योगी बनना चाहिए जिससे तुम सिद्धि प्राप्त कर लोगे. साधुगण चले गए तो नारदजी ने उनके बताए मार्ग पर चलना आरंभ कर दिया.

नारदजी में बड़ा परिवर्तन पाया. निर्मल मन के हो गए और सबको विष्णुमय ही देखने लगे. एक दिन उन्हें विष्णुलोक की प्राप्ति भी हो गई. फिर भगवान श्रीविष्णु की ही कृपा से वह ब्रह्माजी द्वारा उत्पन्न हुए और तीनों लोकों में हरिगुण गाते घूमते हैं.

लोमशजी ने कहा- तुम्हें नारदजी की कथा सुनाई ताकि तुम सत्संग का महत्व समझ सको. यदि तीर्थों की महिमा बड़ी है तो सत्संग की महिमा अपरंपार है. सत्संग से जन्म भर के पाप उसी तरह से कट जाते हैं जैसे शरद ऋतु में बादल. नारद इससे दुर्लभ विष्णुलोक को पा गए.

वैश्य विश्वंभर ने कहा- ऋषिवर, आपकी बात मेरी समझ में आ गई आपका सत्संग पा कर जीवन धन्य हुआ और मेरे तीर्थाटन भी सफल हो गया. मेरी आत्मा को अद्भुत शांति मिली है. आगे भी मैं सत्संग लाभ लेता रहूंगा.

लोमशजी ने कहा- हे वैश्यवर आप सत्संग में आए तो मैं आपको एक लाभ की बात बता दूं. आपने जितने भी पुण्य कार्य और तीर्थ किए, सत्संग लाभ लिया पर यदि वृषोत्सर्ग नहीं किया तो सब व्यर्थ रहा. समय रहते ही वृषोत्सर्ग संपन्न कर लो.

मंत्री विपश्चित ने कहा- हे ब्राह्मण श्रेष्ठ फिर वैश्य विश्वंभर यानी हमारे आज के राजा पुष्कर नगरी को गए और वहां पर नीले रंग के उत्तम वृष का वृषोत्सर्ग संपन्न करवाया. दिव्य सुखों को भोगने के बाद उस वैश्य का अगला जन्म राजकुल में हुआ.

ब्राह्मणवर आपने नगर में जो विचित्र दृश्य देखा उसके बारे में बताता हूं. आपने जो सुंदर और दिव्य स्वरूप के लोग देखे वे वह लोग हैं जो वृषोत्सर्ग के समय उपस्थित थे. जिन-जिन लोगों पर वृष की पूंछ से फेंके गए जल के छींटे पड़े वे देवों जैसे दिव्य हो गए.

जिन्होंने इस वृषोत्सर्ग को देखा वे धनवान हो गए और जिन्होंने वृषोत्सर्ग की आलोचना की थी वे फटेहाल हो गए. जिन्होंने वह आलोचना सुनी वे निर्धन और निस्तेज दिखे. पूर्वजन्म का यह सारा वर्णन मैंने ऋषि पराशर से सुना था.

वह सारी गाथा आपको सुना चुका. आपकी शंका का समाधान हो गया हो तो कृपा कर अब आप घर लौट जायें. इसके बाद वे चारों नवयुवक आश्चर्य से भरे धर्मवत्स को उसकी दक्षिणा समेत सकुशल उसके घर पहुंचा आए.

यह कथा सुनाकर वशिष्ठ जी ने वीरवाहन को समझाया- यदि आप यमराज से भयभीत हैं और नरक से डरते हैं तो सद्गति प्राप्त करने के लिए वृषोत्सर्ग कर लें. यही उपाय उत्तम रहेगा. यह बात वीरवाहन की समझ में आ गयी.

गरूड की शंका का समाधान होने लगा था. भगवान श्रीकृष्ण ने आगे कहा- वीरवाहन ने इसके बाद मथुरा नगरी जा कर उत्तम वृष का विधि विधान से वृषोत्सर्ग कराया. अपने नगर लौटकर सुखपूर्वक राज करने लगा. जब वह मरा तो यमदूत उसे ले चले.

जब यमदूत कुछ दूर निकल आये तो राजा वीरवाहन ने पूछा कि कृपया यह बताये कि श्राद्धदेव की पुरी कहां पर है. यमदूत बोले- महाराज हम कालपुरी जा रहे हैं.

यमदूत उन लोगों को श्राद्धदेवपुरी ले आते हैं जिनके धर्माधर्म की गणना धर्मदेव को करनी होती है और उसके आधार पर उनके नरक की व्यवस्था होती है. वह स्थान पापी लोगों के लिए है. आप जैसे पुण्यात्माओं का वहां क्या काम.

तभी देव गंधर्वों सहित स्वयं धर्मराज वहां आ पहुंचे. वीरवाहन ने धर्मराज को साक्षात देख कर स्तुति की. धर्मराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले- यमदूतों इन्हें सुख साधन की प्रचुरता वाले देवलोक में ले जाओ.

वीरवाहन ने धर्मराज से पूछा- हे देव, मैंने जीवन में अनेक व्रतोपवास, दान, यज्ञ, हवन, तीर्थाटन और सत्संग जैसे तमाम पुण्य किए. मुझे यह नहीं पता कि मुझे किस पुण्य के प्रताप से स्वर्ग का अधिकारी समझा जा रहा है. कृपया बताएं.

धर्मराज बोले- तुमने बहुत से पुण्य कार्य किए फिर सत्संग करने से उनका प्रभाव दोगुना हो गया. फिर तुमने वशिष्ठ का कहा मानकर वृषोत्सर्ग भी कराया इसलिए अब आप स्वर्ग के अधिकारी बने.

भगवान श्रीकृष्ण बोले- हे गरूड़, मनुष्यों को सद्गति दिलाने वाले वृषोत्सर्ग की महत्ता मैंने आपको सुनाई. इसकी एक विशेषता यह भी है कि इसे सुनने वाला भी सद्गति का अधिकारी हो जाता है.

कहते हैं यह कथा जीवन में कम से कम एकबार अवश्य सुननी और सुनानी चाहिए.

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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