लक्ष्मी रूठ जाए तो फिर जीवन की सारी सुख-सुविधा, अन्न-धन, सुख-सुविधा और मन की शांति सब छीन जाती है. जन्म-जन्मांतर की रूठी लक्ष्मी को ऐतरेय ने कैसे मनाया था. दरिद्रता दूर करने का तरीका.
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पौराणिक काल की बात है. बहुत सारे मुनि सभी पापों से छुटकारे और दरिद्रता को हमेशा के लिए जड़ से खत्म करने का सरल सटीक उपाय ढूंढने में लगे थे. ढूंढते ढूँढते उन्हें कई उपाय मिले.
पर इन उपायों में से ऐसा कौन है जो आजमाया हुआ, सबसे बेहतर और निश्चित प्रभाव देने वाला है, यह जानने के लिये बहुत सारे ऋषि इकट्ठा हो कर सूत जी के पास जा पहुंचे.
ऋषिगण सूत जी के पास पहुंच कर एक साथ बोले, लगातार लक्ष्मी बनी रहें और सब पाप भी कटें किसी भी मनुष्य के लिये इसका सबसे सरल, सहज उपाय क्या है, आज हमें यह बतलाइये.
सूत जी बोले, सब शास्त्रों, ग्रंथों का मंथन कर और बार बार विचार कर मैं जिस फैसले पर पहुंचा हूं उसे सुनो, अगर कोई खाते- पीते, सोते जागते, आंख मींचते, खोलते चलते, आराम करते भगवान का नाम जपता रहे तो सभी पापों से छूट जाता है.
ऐसे मनुष्य से लक्ष्मी जी इस कदर खुश होती हैं कि दु:सह पत्नी दरिद्रा को उस व्यक्ति को छोड़ कर भागना ही पड़ता है. नाम जपने के लिये, बारह अक्षर वाला मंत्र, ऊं नमो भगवते वासुदेवाय ही सबसे उत्तम है.
जो लोग जनेऊ या यज्ञोपवीत पहनते हैं उन्हें चाहिये कि वे पहले ऊं लगायें जबकि जो जनेऊ नहीं पहनते वे पहले श्री लगा कर यह मंत्र जपें. यह अचूक असर वाला है. आप लोगों को इस मंत्र जाप के प्रभाव से जुड़ी एक कथा भी सुनाता हूं, ध्यान से सुनिये.
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एक ब्राहमण को कोई संतान न थी. कठिन तपस्या और लगातार प्रार्थना के बाद एक बेटा पैदा हुआ. ब्राह्मण ने उसका नाम ऐतरेय रखा. सही समय पर उसके संस्कार पूरे कर उसे पढने भेजा गया.
आश्रम और वहां गुरूजी की तमाम कोशिशों के बाद भी कुछ साल बाद तक ऐतरेय लिख लोढा पढ पत्थर ही रहे. इसके बाद पिता उसे पढ़ाने बैठे, किन्तु बच्चे की जीभ ही नहीं हिलती. वह कुछ बोल ही नहीं पाता था.
ऐतरेय की जीभ केवल ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’, बस इस मंत्र को ही बोल पाती थी. इसके अलावा उसकी जीभ से और कोई शब्द न निकलता न कोई बोल फूटते. पिता पढ़ा कर थक गए.
निराश होकर उसके पिता ने दूसरा विवाह किया. नई पत्नी से चार बेटे हुए, वे चारों वेदों के बड़े जानकार और विद्वान हुए. अपनी इस काबिलीयत के बल पर उन्होंने कमाकर धन दौलत से घर भर दिया.
ब्राह्मण की दूसरी पत्नी और उन चारों की माता बहुत प्रसन्न रहती थी, किंतु ऐतरेय की माता दुख में डूबी रहती थी. एक दिन उन्होंने ऐतरेय से कहा- ‘बेटा! तुम्हारे और भाई वेद-वेदांग के विद्वान हैं उनकी कमाई से उनकी माता को कितना सुख है.
बेटा, एक मैं अभागिन हूँ, तुम मेरे बेटे हो, प्यारे हो पर तुमसे मुझे अब तक कोई सुख न मिला. मुझे हर दम नीचा देखना पड़ता है, इस जीवन से तो मेरा मर जाना ही अच्छा है.
उनके चलते माता को इतना दुख है और वे उनके अनपढ होने से इतनी निराश हैं, ऐतरेय ने यह पहली बार जाना. माता को ढाढ़स बंधाते हुए ऐतरेय ने कहा- आज ही मैं तुम्हारे लिए बहुत-सा धन ले आऊंगा.
इतना कहकर ऐतरेय एक यज्ञ-मंडल में चले गये. जाने क्या हुआ कि ऐतरेय के यज्ञ मंडल में पहुँचते ही वेदी के पास बैठ यज्ञ करते वैदिक यज्ञ के मंत्र ही भूल गए. उन्हें एक भी मंत्र याद नही आ रहा था. वे सभी बहुत असमंजस में पड़ गए.
ऐतरेय ने वहाँ पहुंच कर उनसे कुछ पूछना चाहा तो हमेशा की तरह मुंह से ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का साफ उच्चारण गूंज उठा. यह सुनते ही वैदिकों को न सिर्फ मंत्र याद आ गए बल्कि उनके मुख से ठीक-ठीक उच्चारण होने लगा.
यज्ञ करने वालों के मन में ऐतरेय के लिए श्रद्धा उमड़ पड़ी. आज ये न होते तो सारी तैयारी बेकार जाती, हंसी होती अलग से. जरूर ईश्वर के भेजे बड़े महात्मा हैं. उन लोगों ने ऐतरेय को प्रणाम किया और विधि विधान के साथ उनकी पूजा की.
जल्द ही उन्हें पूजने वालों की भारी संख्या हो गयी. मौजूद लोग तो क्या यज्ञ करने कराने वाले पंडित, ऋषि, मुनि सबने बढिया चढावे के साथ उनका पूजन किया.
पूर्णाहुति के बाद यज्ञ समाप्त हुआ तो सोना, हीरे जवाहरात आदि से ऐतरेय का स्वागत किया गया. जमीन, गाय और दूसरे दानों की तो गिनती ही न थी. ऐतरेय ने सब धन माता के चरणों में झोली में डाल दिया.
देवताओं द्वारा बरसाये गये फूलों से सारा वातावरण सुगंधित हो उठा. ऐतरेय के पूर्व जन्म के सारे पाप कट गये और जीवनभर लक्ष्मी की कृपा बनी रही. बारह अक्षरों वाला यह द्वादशाक्षर मंत्र का जप सचमुच बहुत प्रभावशाली है.
(स्रोत: लिंगपुराण)
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