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बजरंगबली ने एक रत्न को दांतो से फोड़ा और विभीषण को दिखाने लगे. उन्होंने विभीषण से पूछा- क्या आपको इसमें सीताराम नजर आ रहे हैं? विभीषण ने कहा- ये तो दिव्य पत्थर हैं इसकी चमक में कुछ कहां दिखाई पड़ता है. बजरंगबली बोले- जिसकी चमक से आँखों पर पर्दा पड़ने लगे और जिसमें मेरे आराध्य की छवि न दिखे वह मेरे किस काम की? वह तो किसी के भी काम की नहीं हो सकती. इसलिए मैंने इस बेकार वस्तु को तोड़कर फेंक दिया.

लंकापति विभीषण संन्यासी हनुमानजी के इस तर्क का रहस्य समझ नहीं सके. उन्होंने चिढकर हनुमानजी से कहा- यदि इन दिव्य पत्थरों के अंदर श्रीराम की छवि नहीं है तो क्या पहाड़ जैसे आपके शरीर के अंदर प्रभु की छवि है? बजरंगबली ने विभीषण को कहा कि उनके रोम-रोम में सीताराम बसते हैं. लेकिन विभीषण तो अब रामभक्त से विभीषण से लंकानरेश विभीषण बन गए थे. उन्हें भक्त की महिमा का कैसे पता चलता! अहंकारवश विभीषण ने हनुमानजी से प्रमाण मांग लिया.
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