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यह सुनकर देवशर्मा ने महात्मा के चरणों की वन्दना की और समृद्धशाली सौपुर ग्राम में पहुँचकर उसके उत्तर भाग में एक विशाल वन देखा ।उसी वन में नदी के किनारे एक शिला पर मित्रवान बैठा था ।उसके नेत्र आनन्दातिरेक से निश्चल हो रहे थे, वह अपलक दृष्टि से देख रहा था ।वह स्थान आपस का स्वाभाविक वैर छोड़कर एकत्रित हुए परस्पर विरोधी जन्तुओं से घिरा था ।जहाँ उद्यान में मन्द-मन्द वायु चल रही थी ।

मृगों के झुण्ड शान्तभाव से बैठे थे और मित्रवान दया से भरी हुई आनन्दमयी मनोहारिणी दृष्टि से पृथ्वी पर मानो अमृत छिड़क रहा था ।इस रूप में उसे देखकर देवशर्मा का मन प्रसन्न हो गया ।वे उत्सुक होकर बड़ी विनय के साथ मित्रवान के पास गये ।मित्रवान ने भी अपने मस्तक को किंचित् नवाकर देवशर्मा का सत्कार किया ।

तदनन्तर विद्वान देवशर्मा अनन्य चित्त से मित्रवानके समीप गये और जब उसके ध्यान का समय समाप्त हो गया, उस समय उन्होंने अपने मन की बात पूछीः ‘महाभाग ! मैं आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ ।मेरे इस मनोरथ की पूर्ति के लिए मुझे किसी उपाय का उपदेश कीजिए, जिसके द्वारा सिद्धि प्राप्त हो चुकी हो ।’
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