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वहां उन्हें पता चला कि यहां एक सन्त बड़े पहुंचे हुए महात्मा हैं. वे अपनी योग सिद्दी के बल पर सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं.

नारदजी तुरंत संत के पास पहुंचे और उनके चरण पकड़ लिए.

संत ने चकित हो कर कहा- “यह क्या करते हैं देवर्षि! आप पर ऐसा कौन सा दुःख आ पड़ा है?”

नारदजी बोले- “हे प्रभु! मुझ पर बहुत बड़ा दुःख आ पड़ा है. अब केवल आप ही मेरी सहयता क्र सकते हैं. मैं आपके चरण तभी छोड़ूँगा, जब आप मुझे मेरी सहायता का वचन देंगे.”

यह सुनकर संत संकट में पड़ गए.

कुछ देर सोचने के बाद बोले- “ मैं तो स्वयं देवताओं की कृपा का याचक हूँ. मै आपको क्या दे सकता हूँ? मेरे पास तीन अद्भुत पाषाण हैं जो देवताओं की कृपा से ही प्राप्त हुए हैं.

प्रत्येक पाषाण से एक मनोकामना पूरी हो सकती है. नारदजी आप चाहें तो उन्हें ले लें किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि इस पत्थर का देवताओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा. आप उन्हें इससे प्रभावित नहीं कर सकेंगे.”

इतना कह कर महात्माजी ने तीनों पाषाण नारदजी को दे दिए.

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