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तब से ही पुत्र की रक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की प्रथा शुरू हो गई.
यह कथा कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी. जीवित पुत्रिका के दिन भगवान श्रीगणेश, माता पार्वती और शिवजी की पूजा एवं ध्यान के बाद ऊपर बताई गई व्रत कथा भी सुननी चाहिए.
इसकी पूजा शिवजी को प्रिय प्रदोषकाल में करनी चाहिए. व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है.
चिल्हो सियारो की कथा जो सुनी जाती है वह संक्षेप में इस प्रकार से है-
एक वन में सेमर के पेड़ पर एक चील रहती थी. पास की झाडी में एक सियारिन भी रहती थी. दोनों में खूब पटती थी.
चिल्हो जो कुछ भी खाने को लेकर आती उसमें से सियारिन के लिए जरूर हिस्सा रखती.सियारिन भी चिल्हो का ऐसा ही ध्यान रखती. इस तरह दोनों के जीवन आनंद से कट रहे थे.
एक् बार वन के पास गांव में औरतें जिउतीया के पूजा की तैयारी कर रही थी. चिल्हो ने उसे बडे ध्यान से देखा और अपनी सखी सियारो को भी बताओ.
फिर चिल्हो-सियारो ने तय किया कि वे भी यह व्रत करेंगी.
सियारो और चिल्हो ने जिउतिया का व्रत रखा. बडी निष्ठा और लगन से दोनों दिनभर भूखे-प्यासे मंगल कामना करत व्रत में रही मगर रात होते ही सियारिन को भूख प्यास सताने लगी.
जब बर्दाश्त न हुआ तो जंगल में जाके उसने मांस और हड्डी पेट भरकर खाया. चिल्हो ने हड्डी चबाने के कड़-कड़ की आवाज सुनी तो पूछा कि यह कैसी आवाज है.
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nice to read your post. Really jivitptrika vrat santan ki kaal se raksha karta hai