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तब नारद मुनि ने कहा- श्राद्ध पक्ष में ही पितरों को मोक्ष मिलता है इसलिए तुम श्राद्ध पक्ष की एकादशी का व्रत करो. इस व्रत को करने से तुम्हारी कई पुश्तों को मोक्ष की प्राप्ति होगी.

राजा इन्द्रसेन ने नारदजी से व्रत का विधि विधान पूछा.

नारदजी ने राजा को इस एकादशी की पूरी विधि बतलाई. राजा ने उस विधि से एकादशी की व्रत-पूजा की तो उसके पिता दोषमुक्त हुए और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई. धर्मराज ने उन्हें स्वर्ग भेज दिया.

नारदजी ने जो विधि बताई थी, संक्षेप में वह इस प्रकार से है-

यह व्रत आश्विन कृष्ण पक्ष की दशमी से ही शुरू हो जाता है. दशमी के दिन प्रातः स्नान कर घर में पूजा पाठ करें.

एकादशी के दिन सुबह स्नान करें एवम् पूरे दिन के निराहार व्रत का संकल्प लें. व्रत के संकल्प की विधि वही होती है जो अन्य संकल्पों में होती है. एप्प में इसका वर्णन है.

फिर विधिवत श्राद्ध तर्पण करें एवं ब्राह्मणों को फलाहार करायें.

इसके बाद गाय, कौए एवं कुत्ते को आहार का एक हिस्सा दें.

स्वयं यदि फलाहार करना है तो वह रात्रि में ही करें, दिन में नहीं.

दिन में शालिग्रामजी का पूजन करें. यदि शालिग्रामजी नहीं है तो भगवान विष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण की छवि का पूजन करें

विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ अवश्य करें.

दूसरे दिन पूजा करके ब्राहमणों को भोजन कराएं एवं दक्षिणा दें. पूरे कुटुंब के साथ भोजन ग्रहण करें.

इस इंदिरा एकादशी के प्रताप से राजा इंद्रसेन को भी वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति हुई.

जिनके पितर नर्क के भागी बने हों उनके निमित्त इस व्रत को करने से उन्हें मुक्ति मिलती है. नर्क का भागी मनुष्य अपने कर्मों के कारण बनता है अतः किसी के लिए यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि उनके किस पितर की क्या संभावित गति रही होगी.

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