मुनि वशिष्ठ के कई पुत्र थे. शक्ति उसमें सबसे बड़े और महान ऋषि थे. एक बार रुधिर नामक राक्षस शक्ति ऋषि के आश्रम में आया और शक्ति के छोटे भाइयों समेत सब को खा गया.

आश्रम के मुनियों को आशंका थी कि महर्षि विश्वामित्र ने भी उस राक्षस को यहां भेजा और ऐसा करने पर उकसाया था. जिस समय यह घटना घटी उस समय वशिष्ठ कल्मषपाद राजा के यहां यज्ञ करा रहे थे.

पुत्र के मरने का समाचार सुनकर वशिष्ठ रोते-कलपते हुए आश्रम पहुंचे. पत्नी अरुंधति औऱ पुत्रवधू की हालत देखी तो सधारण मानव की तरह वशिष्ठ पहाड़ की चोटी से कूदकर आत्महत्या करने चल दिए.

उनको ऐसा करते देख शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ति ने कहा- हे पिताश्री! इस शरीर की रक्षा करें मेरे गर्भ में आपके पुत्र का अंश है जिसे आप जल्द ही देख सकेंगे. यह सुनकर वशिष्ठ रूके और खुद को किसी तरह समझाया.

अरुंधति के होश में आते ही वशिष्ठ उन्हें देखकर फिर से विलाप करने लगे. गर्भस्थ शिशु सब सुन रहा था. उसने उसी समय गर्भ में से ही एक ऋचा बोली.

उस कठिन वैदिक ऋचा को सुनकर वशिष्ठ बड़े अचरज में पड़ गये कि यह कौन बोला? तभी भगवान विष्णु ने आकाशवाणी की- शक्ति का यह पुत्र और तुम्हारा पौत्र मेरे ही समान है.इसलिए शोक त्याग दो. यह अपने कुल को तारेगा.

यह सुनकर वशिष्ठ शक्ति की पत्नी अदृश्यन्ति से बोले- हे पुत्री तेरे गर्भ में स्थित शक्ति के पुत्र का मुंह देखने के लिये ही मैं जीवित रहूंगा. इसलिए अपना ध्यान रखो ताकि तुम्हारा पुत्र स्वस्थ रहे.

शक्ति की पत्नि को दसवें महीने में पुत्र उत्पन्न हुआ. नाम रखा गया पाराशर. थोड़ा बड़ा हुआ तो अदृश्यन्ति से पूछा- मां तुम शृंगार क्यों नहीं करती? तुम ने आभूषण क्यों त्याग दिए? अदृश्यन्ति कुछ न बोलीं. बेटे ने पूछा मेरे तेजस्वी पिता कहां हैं?

बार-बार पूछने पर मां ने कहा कि बेटा तेरे तेजस्वी पिता को तेरे जन्म से पूर्व राक्षसों ने अपना आहार बना लिया. यह सुनकर पाराशर बोला- माता तीनों लोक रुद्र का स्वरूप हैं. मैं उन्हें प्रसन्न करूंगा और आपको अपने पिता के दर्शन कराऊंगा.

माता बोली जा तेरा वचन सत्य हो तू शिव का पूजन कर. दादा वशिष्ठ ने कहा तेरा संकल्प ठीक है, राक्षसों के नाश के लिये सर्वेश्वर शिव का पूजन ही सबसे उचित है.

इसके बाद पाराशर ने बिना देरी किए वहां की मिट्टी से ही एक शिवलिंग बनाया और शिव सूक्त और दादा से सीखे अन्य प्रभावकारी शिवमंत्रों से महादेव की आराधना करने लगा.

बालक पाराशर प्रतिदिन शिवलिंग के सामने प्रार्थना करता- हे भगवान रुद्र! रुधिर राक्षस ने मेरे पिता और पूरे परिवार को खा लिया. अब मैं उनको उनके सभी भाइयों सहित देखना चाहता हूं. इस प्रकार कहकर वह रोने लगता और रोते-रोते गिर पड़ता.

बालक की प्रार्थना देख भगवान शिव ने पार्वतीजी से कहा- मेरे उस भक्त ब्राह्मण को देखो. किस प्रकार मेरी प्रार्थना में विह्वल है. पार्वतीजी ने उसे देखकर शिवजी से कहा- भगवन उसका इच्छित वरदान उसे दे क्यों नहीं देते.

शंकरजी बोले- मैं इस ब्राह्मण की रक्षा करुंगा. मेरे दर्शन करने योग्य दृष्टि मैं इसे देता हूं. दिव्य दृष्टि पाकर पराशर ने भगवान, भवानी और नंदी को प्रणाम किया.

तभी आकाश में भाइयों समेत उसके पिता ने दर्शन दिए. वे एक सुंदर विमान में बैठे थे. शक्ति ने आकाश से वशिष्ठजी को प्रणाम करने के बाद कहा- पुत्र पराशर तुमने हमारे वंश को तार दिया. शिवजी से इच्छित वर मांग लो.

शिवजी पाराशर को मंत्रशक्तियों से संपन्न होने का वरदान देकर अंतर्ध्यान हो गए. पाराशर ने मंत्रों से राक्षसों को जलाना शुरु किया. उनके मंत्र और क्रोध की अग्नि से राक्षस भस्म होने लगे. पूरा रक्ष कुल आतंकित हो उठा.

वशिष्ठजी ने पराशर से कहा- क्रोध मत करो. क्रोध मूर्खों को होता है. सभी राक्षसों ने तुम्हारे पिता का कुछ नहीं बिगाड़ा. तुम्हारे पिता का हत्यारा भी तो किसी के बहकावे पर आया था. इनको क्षमा कर दो. पाराशर ने राक्षस विध्वंस यज्ञ समाप्त कर दिया.

राक्षसों के भस्म करने के यज्ञ में ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्यजी भी पधारे थे. उन्होंने पाराशर की क्षमा प्रव़ृत्ति से प्रभावित होकर दो वरदान दिए. पहला कि तुम सभी शास्त्रों के जानकार हो जाओगे. दूसरा, पुराण संहिता रचोगे.

कालांतर में पुलस्त्य और वशिष्ठ के प्रसाद से पाराशर ने शिवजी की भक्ति में लीन रहते हुए विष्णु पुराण की रचना की.

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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