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अवंतिका नगर के बाहर, क्षिप्रा नदी के पार एक महापंडित रहता था. उसकी दूर-दूर तक ख्याति थी. वह रोज क्षिप्रा को पार करके, नगर के एक बड़े सेठ को धर्मकथा सुनाने जाता था.

नियम के अनुसार वह सेठ को कथा सुनाने चला तो एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि वह बहुत चौंका. जब वह नाव से क्षिप्रा पार कर रहा था कि एक घड़ियाल ने सिर बाहर निकालकर पंडित को आवाज दी.

घड़ियाल बोला- पंडितजी, महाराज मेरी भी उम्र हो गई. इस नदी से होकर ही रोज सेठ के पास जाते हैं. मुझे भी कुछ आते-जाते कुछ ज्ञान दे दिया करें और मैं यह ज्ञान आपसे मुफ्त नहीं मांगता हूं इसके लिए आपको उचित दान-दक्षिणा भी मिलेगी.

घड़ियाल ने कुटिलता से आंखे नचाते हुए अपने मुंह में दबा हुआ एक हीरों का हार पंडितजी को दिखाया.

हीरों का हार! कथा सुनाने के बदले में ऐसी सुंदर दक्षिणा. पंडित की आंखें उमंग में भरी चमकने लगीं.

आंखों में तैरती लालच की लाल-लाल डोरी ने बुद्धि पर कब्जा जमाया और पंडितजी तो भूल ही गए कि वणिक को कथा सुनाने जाते थे.

घड़ियाल से पंडितजी बोले- पहले आपको ही कथा सुनाएंगे यजमान.

अब रोज पंडितजी घड़ियाल को कथा सुनाने लगे. घड़ियाल भी रोज भी पंडितजी को तरह-तरह के उपहार देकर लुभाता रहता. कभी हीरे, कभी मोती, तो कभी अनेक रत्नों से जड़े कंठाहार.

पंडितजी के दिन तो मजे में कट रहे थे. रोज इतनी बहुमूल्य दक्षिणाएं मिल रही थीं.

कुछ दिनों बाद घड़ियाल ने कहा- पंडित जी! अब मेरी उम्र पूरी होने के करीब आ रही है, मुझे त्रिवेणी तक छोड़ आएं. एक पूरा मटका भरकर हीरे जवाहरात दूंगा.

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