शिवपुराण की कथा ब्रह्माजी अपने पुत्र नारद को सुना रहे हैं. पिछली कथा से आगे,

यज्ञ में वीरभद्र के प्रहार से क्षत-विक्षत अंगों वाले देवता ब्रह्मलोक में आकर मुझसे अपने कष्ट सुनाने लगे. उनकी दशा देखकर मुझे दया आ गई. मैं उन सबको लेकर विष्णुलोक पहुंचा.

मैंने श्रीहरि से अनुरोध किया- जो भी करना है शीघ्र कीजिए. विलंब अनिष्टकारी हो सकता है. कुछ ऐसे प्रयत्न करने होंगे कि दक्ष के प्राण मिल जाएं, क्षत-विक्षत अंगों वाले देव स्वस्थ हो जाएं और यज्ञ पूरा हो जाए.

दक्ष तो प्राण देना और देवों को स्वस्थ करना तो साधारण बात थी. किंतु ऐसा करने से शिवगणों के प्रहार का प्रभाव निष्फल होता. इससे शिवजी क्रोधित हो सकते थे. यही समस्या थी जिसका निदान करना था.

विष्णुजी बोले- दक्ष और उसके सहायक बने देवों और मुनियों ने शिवजी का जिस प्रकार अपमान किया है उसका दंड तो मिलना ही चाहिए. अब महादेव के अतिरिक्त कोई निदान नहीं कर सकता. सभी शिवजी की शरण में जाएं.

दक्ष ने उन्हें पत्नी वियोग देकर दुखी किया है. शिवजी कालजयी हैं, वासनामुक्त हैं. शिवजी का जो अपकार हुआ है उसकी क्षमा प्रार्थना के लिए आप सबके साथ मैं भी चलने को तैयार हूं.

विष्णुजी के साथ सभी देवताओं और ऋषियों को लेकर मैं कैलास पहुंचा. हम सभी ने अनेक प्रकार से शिवजी की स्तुति की उनसे क्षमा प्रार्थना की. शिवजी का क्रोध शांत हो गया. विष्णुजी ने सभी की गलतियां गिनाईं और भोलेनाथ से क्षमा की प्रार्थना की.

वह बोले- प्रभु कुछ ऐसा अनुग्रह कीजिए कि अधूरा यज्ञ पूरा हो जाए, दक्ष का उद्धार हो जाए, भग को उसके नेत्र मिल जाएं, पूषा को दांत और भृगु को पहले जैसी दाढ़ी-मूंछ प्राप्त हो जाए.

श्रीहरि ने आगे कहा- भोलेनाथ! आपके लिए कुछ भी असंभव नहीं. शरणागत पर आप दया करते हैं. आपके गणों के प्रहार से क्षत-विक्षत हुए देवों को आरोग्य प्रदान कीजिए. प्रभु अब यज्ञ की एक नई व्यवस्था होगी.

यज्ञ कर्म के पूर्ण हो जाने पर जो भी शेष भाग रहेगा, उस पर आपका ही एकाधिकार होगा. उसमें किसी का हस्तक्षेप नहीं होगा. आपको अर्पित किए भाग पर ही यज्ञ की पूर्णता निर्भर करेगी.

विष्णुजी के इतना कहते ही सभी देवता और मुनि शिवजी के चरणों में लोट गए. शिवजी ने कहा- हे ब्रह्मन्! हे विष्णो! मैंने आप दोनों को हमेशा ही गौरव दिया है. आपकी किसी प्रार्थना को कभी नहीं नकारा. दक्ष का यज्ञ मैंने ध्वंस नहीं किया.

सबको उसके किए का फल तो भोगना ही पड़ता है. दक्ष ने जो किया वह अनुचित था. जिन्होंने साथ दिया वह भी घोर अनुचित था. उसका दंड मिला. फिर भी आपके अनुरोध पर आपकी सभी मांगे पूरी करता हूं.

शिवजी बोले- दक्ष का मस्तक जल गया है. अतः उसके सिर पर बकरे का मस्तक जोड़ दें. भग देवता, मित्र के नेत्रों से देखें. पूषा, यजमान के दांतों से पिसे यज्ञान्न का सेवन करें. भृगु की दाढ़ी के स्थान पर बकरे की दाढ़ी लगा दें. खंडित भुजा वाले ऋत्विज अश्विनीकुमारों की भुजाओं से काम चलाएं.

यह कहकर शिवजी ने मौन धारण कर लिया. सभी देवताओं ने साधु-साधु कहते शिवजी का गुणगान कर कृतज्ञता जताने लगे. मेरी सहमति से विष्णुजी ने शिवजी को उस यज्ञ में निमंत्रित किया.

यज्ञशाला में क्षत-विक्षत पड़े यक्षों, गंधर्वों और राक्षसों को देखकर शिवजी द्रवित हो गए. वीरभद्र को उन्होंने दक्ष का धड़ लेकर आने का आदेश दिया. बकरे का सिर रखने के बाद शिवजी की दृष्टि पड़ते ही दक्ष उठ खड़े हुए.

दक्ष लज्जावश मौन खड़े थे. शिवजी ने कहा- हे दक्ष! यद्यपि मैं देवाधिदेव हूं और सब प्रकार से स्वतंत्र हूं तथापि मैं भक्तों के अधीन रहता हूं. मैं निर्गुण परमेश्वर हूं. सबकी आत्मा और सबका साक्षी हूं. जगत की सृष्टि, पालन और विनाश मैं ही करता हूं.

इन कर्मों को करते हुए मैं ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र कहलाता हूं. हम तीनों के बीच भेद करने वाला कभी सुख-शांति प्राप्त नहीं करता. तत्वज्ञान के लिए हमें एक साथ देखने की दृष्टि चाहिए.

विष्णुभक्त होकर मेरी निंदा करने वाला और मेरा भक्त होकर विष्णु की निंदा करने वाला सदैव अशांत होकर भटकता रहता है. जिस प्रकार प्राणी अपने शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों को अपने में मानता है उसी तरह हम तीनों को एकरूप समझो.

शिवजी के इन सारगर्भित वचनों को सुनकर उपस्थित देवता और मुनिश्वर बड़े प्रसन्न हुए. सभी शिवजी का यशोगान करते हुए स्वस्थ होकर अपने-अपने लोक को चल दिए. हे नारद! यही दक्ष कन्या हिमालय की पत्नी मेना के गर्भ से उत्पन्न हुईं और पार्वती कहलाईं.

संकलन व संपादनः राजन प्रकाश

।।इति श्रीरूद्रसंहिताः द्वीतीय सती खंड।।

2 COMMENTS

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