Wallpapers for Desktop with wallpaper, metallique, texture, grunge, effets, creer, images, importez, affiche, realiste, discount

भाद्रपद द्वितीय को माता विंध्यवासिनी का प्राकट्य दिवस के रूप में मनाया जाता है. भागवत पुराण में उनका प्राकट्य दिवस जन्माष्टमी का ही है किंतु कुछ स्थानों पर उनका प्राकट्य जन्माष्टमी से छह दिन पूर्व माना जाता है. विंध्याचली देवी की भागवत महापुराण में वर्णित कथा

द्वापर में भगवान श्रीविष्णु अपना पूर्णावतार श्रीकृष्ण के रूप में लेने वाले थे. उन्हें देवकी के गर्भ से उनकी आठवीं संतान के रूप में जन्म लेना था. इस कार्य में भगवान को कई असुरों का वध करना था.

भगवान श्रीहरि ने देवी योगमाया से इस कार्य में सहायता मांगी. उन्होंने योगमाया को आदेश दिया कि वह गोकुल में नंदराय जी के घर में उनकी पत्नी के गर्भ में समा जाएं.

फिर जब वह स्वयं देवकीजी की गर्भ से प्रकट होंगे तो योगमाया को यशोदाजी के गर्भ से प्रकट होना होगा. फिर उन्हें कंस को मानसिक रूप से पीड़ित करके विंध्य पर विराजमान होना होगा.

भगवान ने कहा- हे देवी इस कार्य में मेरी सहायता के बाद आप पृथ्वी पर अनेक रूपों में पूजित होंगी. मेरी आराधना करने वाले भक्त आपके भिन्न-भिन्न शक्ति स्वरूपों की पूजा करेंगे. आप अपने भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली होंगी.

योगमाया ने वैसा ही किया. देवकी के साथ-साथ यशोदाजी भी गर्भवती हुईं. जिस समय देवकीजी के गर्भ से श्रीकृष्ण का जन्म हुआ उसी समय यशोदाजी के गर्भ से योगमाया ने पुत्री रूप में जन्म लिया.

प्रभु के आदेश पर वसुदेवजी बालरूपी भगवान श्रीकृष्ण को एक टोकरी में रखकर गोकुल के लिए चले. योगमाया ने कंस के कारागार के पहरेदारों की और गोकुल में भी सबकी निद्रा ही हर ली ताकि किसी को इस बात का पता न चल सके.

वसुदेवजी शिशुओं की अदला-बदली के लिए श्रीकृष्ण को लेकर चले तो खूब बारिश हो रही थी. यमुना का जल उफन आया था. शेषजी भी गुप्त रूप से पीछे-पीछे छत्र बनाए चलने लगे. यमुना को तो श्रीकृष्ण के पांव पखारने थे.

जैसे ही प्रभु के पैरों का स्पर्श मिला, यमुना का जल स्थिर हो गया. उसने वैसी ही राह दे दी जैसे भगवान श्रीराम को समुद्र ने दिया था. वसुदेव ने श्रीकृष्ण को यशोदाजी के बगल में लिटा दिया और उनकी कन्या को लेकर वापस चले आए.

कारागार के फाटक स्वतः बंद हो गए. कन्या को देवकी के बगल में लिटाकर वसुदेव ने पैरों की बेड़ियां डाल लीं. योगमाया ने अपनी लीला आरंभ की. उन्होंने रोना शुरू किया.

अचेत रक्षक जागे और कंस को जाकर देवकी की आठवीं संतान के बारे में सूचना दी. आठवीं संतान के बारे में सोचकर कंस को नींद ही न पड़ती थी. वह भागकर आया और कन्या को झपट लिया.

देवकी ने विनती की- भैया तुमने सभी पुत्र मार डाले. यह तो कन्या है. इससे क्या भय? इसे तो मुझे प्रदान कर दो. स्त्री का वध करने का पाप अपने सर पर मत लो. कंस नहीं माना.

उसने कन्या के वध की नीयत से उसे पैरों से पकडा और चट्टान पर दे मारा. परंतु वह साधारण कन्या तो थी नहीं. कंस के हाथों से छूटकर हवा में उड़ीं और अपने वास्तविक रूप में आ गईं. आठ भुजाओं में आठ भयंकर आयुध लिए प्रकट हुईं.

देवी के प्रकट होते ही ऐसा प्रकाश फैला कि सबकी आंखें चौंधिया गईं. कंस तो उन्हें देख भी न पाया. सिर्फ उनका ताप और उनकी हुंकार से उसने उनके क्रोध का आभास लगाया. देवी ने वसुदेव और देवकी जीको पूर्ण स्वरूप में दर्शन दिए.

देवी ने क्रोध में आंखे लाल करके कंस को कहा- मुझे मारने की चेष्टा तुमने की. इस संसार के सभी चर-अचर की गति का निर्धारण मैं करती हूं. मैं अजन्मा हूं. अरे मूर्ख! तेरा संहार करने वाला जन्म ले चुका है. तू निर्दोष बालकों की हत्या रोक दे.

यब कहकर देवी वहां से अंतर्धान हो गईं और विंध्य पर्वत पर विराजमान हुईं. वहां वह माता विंध्यवासिनी के रूप में पूजी जाने लगीं. बाद में देवी ने शुंभ-निशुंभ का वध करके देवताओं की रक्षा की.

भागवत पुराण के अतिरिक्त अन्य कई पुराणों में भी विंध्यवासिनी देवी के प्राकटय और महिमा की कथाएं आती हैं. श्रीराम द्वारा उनकी पूजा-अर्चना की भी कथा आती है. शिव पुराण में उन्हें सती का अंश बताया गया है.

51 शक्तिपीठों में से विंध्यावासिनी माता को ही पूर्ण शक्तिपीठ कहा जाता है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here