कल हमने चर्चा की थी कि श्रीराम के आग्रह पर शिवजी विवाह को तैयार हुए हैं. आज से मैं रामचरितमानस के दोहे और चौपाइयों को एक प्रसंग के रूप में प्रस्तुत करूंगा. कथा को तब विराम देंगे जब उसमें विराम का स्थान बने.

अभी तक पोस्ट बड़ी न हो जाए इस कारण कुछ चौपाइयां देकर अगले दिन के लिए जारी रखने का अनुरोध करते थे. आशा है आपको यह तरीका पसंद आएगा. यदि पसंद न आए तो जरूर बताएं. पुराने तरीके पर ही चलेंगे या कुछ औऱ सोचेंगे. आज शिवजी द्वारा विवाह के अगुआई करने के लिए ऋषियों को भेजने का प्रसंगः

श्रीरामचंद्रजी के आग्रह पर भोलेनाथ पार्वतीजी के प्रण को पूरा कर विवाह को सहमत हो जाते हैं. भोलेनाथ सांसारिक बंधन में बंधने जा रहे हैं तो सांसारिक लीला आरंभ करते हैं. जैसे मनुष्य विवाह पूर्व सारे यत्न करता है वैसा ही शिवजी कर रहे हैं.

जैसे कोई साधारण पुरूष विवाह से पूर्व कन्या के बारे में पूरी छानबीन और तसल्ली करता है वैसे ही सर्वज्ञ त्रिलोकीनाथ महादेव पार्वतीजी का मन परखने का यत्न कर रहे हैं. अपनी लीला में भोलेनाथ सप्तर्षियों को शामिल करते हैं.

शिवजी सप्तर्षियों को अगुआ बनाकर पार्वतीजी का मन टटोलने के लिए भेज रहे हैं. महादेव कहते हैं-

दोहा :
पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥77॥

आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए. हिमाचल को समझाकर उन्हें पार्वती को घर लिवा जाने के लिए कहिए. हे सप्तर्षियों! पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए.

चौपाई :
रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमंत तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥

ऋषियों ने तपस्थल जाकर पार्वतीजी को देखा तो प्रतीत हुआ मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो. मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?

एक कोमलांगी को ऐसा कठोर तप करते देख तपस्वियों का हृदय भी दुखित है. वह देवी के प्रेम और समर्पण के प्रति श्रद्धाभाव से झुके हैं किंतु अभी तो वह शिव के दूत बनकर आए हैं. प्रभुकार्य पर हैं. यह विचार आते ही वह पार्वतीजी से बात आरंभ करते हैं.

ऋषिगण पार्वतीजी से पूछते हैं कि आप ऐसी कठोर साधना और आराधना किसे प्रसन्न करने के लिए और किस अभिलाषा से कर रही हैं. आप हमें बताइए.

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जड़ताई॥2॥

भले ही पार्वतीजी ने तपोबल से ऋषियों से भी ज्यादा तेज प्राप्त कर लिया है और इस कारण ऋषि भी उनके समझ श्रद्धाभाव रखते हैं किंतु वह हैं तो स्त्री. प्रेम और विवाह के विषय पर बात से उनको मन सकुचाता ही है.

पार्वतीजी को थोड़ी झिझक हो रही है. ऋषियों ने समझ लिया है और सब जानते हुए भी अंजान बनते उनसे पुनः मन का भेद पूछते हैं. स्त्रीसुलभ शालीनता का परिचय देते पार्वतीजी कहती हैं कि बात कहते संकोच होता है. आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हंसेंगे.

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पंखन्ह हम चहहिं उड़ाना॥3॥

पार्वतीजी कहती हैं- मन ने एक हठ पकड़ लिया है. वह किसी उपदेश को अब नहीं सुनता- समझता. जल के आधार पर दीवार बनाना चाहता है. नारदजी ने जो मुझसे कहा उसे मैंने पूर्णतः सत्य जानकर चल रही हूं और बिना पंख के ही उड़ना चाहती हूं. हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं तो बस शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ.

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥

दोहा :
सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पड़े और बोले- पार्वती तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! इसलिए बुद्धि भी पर्वत सी हो गई. भला नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसी का घर बसा है?

नारद ने दक्ष के पुत्रों को ऐसा उपदेश दिया कि वे संसार बसाने चले थे और कभी घर लौटकर नहीं आए. चित्रकेतु का जीवन भी नारद ने चौपट कर दिया. हिरण्यकश्यपु की जो गति हुई वह भी तो नारद के ही कारण थी.

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥
नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

जो स्त्री-पुरुष नारद की दी हुई सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोड़कर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं. नारद को मन से कपटी हैं. बस सज्जनों सा वेश बना रखा है. इसलिए वह सभी को अपने समान ही बनाना चाहते हैं.

सप्तर्षियों ने पार्वतीजी को शिवजी के रूप स्वभाव आदि के बारे में बताकर उन्हें चेताना शुरू कर दिया. वह तरह-तरह से पार्वतीजी को समझा रहे हैं कि महादेव कभी भी अच्छे जीवनसाथी नहीं हो सकते.

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगंबर ब्याली॥3॥
कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पंच कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

नारद के वचनों पर विश्वास करके तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नंगा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है?

ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग नारद के बहकावे में आकर ठगी गईं. पहले पंचों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था परन्तु फिर क्या किया. सती का त्यागकर उसे मरवा डाला.

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥

अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही. भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं. ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुंदर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥

अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है. वह बहुत ही सुंदर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं.

दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुंठ निवासी॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥

वह दोषों से रहित, सारे सद्गुकणों का कोष, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है. हम तुम्हें ऐसा गुणवान वर लाकर देंगे. तुम्हारा विवाह उससे कराएंगे. सप्तर्षियों की बात सुनकर पार्वतीजी हँसने लगीं. वह कहती हैं-

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥

हे ऋषियों! आपने सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए. सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपना सुवर्ण का स्वभाव यानी चमक को नहीं छोड़ता.

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥

अतः मैं नारदजी के वचनों को सत्य मानती हूं और उसपर से बिलकुल नहीं पीछे हटने वाली. अब इससे चाहे घर बसे या उजड़े, मुझे इसकी रत्तीभर भी चिंता नहीं.

नारदजी को मैंने गुरू माना है और जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती. इसके बाद पार्वतीजी ने ऋषियों को महादेव के चरित्र पर की हुई टिप्पणी का उत्तर देना शुरू किया.

दोहा :
महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

पार्वतीजी कहती हैं- माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और श्रीविष्णु समस्त सद्गुतणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है.

हे मुनीश्वरों! आपने मुझे समझाने में देर कर दी. यदि आप पहले मिलते तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती-विचारती परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे? पार्वतीजी का क्रोध अभी थमा नहीं है.

चौपाई :
जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु संभु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥
जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

यदि आप लोगों का काम विवाह की बातचीत करना ही रह गया है और इसे किए बिना आप लोगों से रहा ही नहीं जाता तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं. खिलवाड़ करने वालों को आलस्य तो होता नहीं इसलिए और कहीं जाकर यह प्रपंच कीजिए.

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

मेरा तो करोड़ जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वर रूप में पाउंगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी. स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोड़ूंगी.

मैं पा परउँ कहइ जगदंबा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलंबा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदंबिके भवानी॥4॥

जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैर पड़ती हूँ. आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई. शिवजी के लिए पार्वतीजी का ऐसा प्रेम देखकर मुनिजन बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!.

दोहा :
तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। यह कहकर मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए. उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे. कल हिमवान द्वारा पार्वतीजी को तप से ले जाने का प्रसंग

संकलनः राजन प्रकाश

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