शिवजी के हृद्य में श्रीराम के दर्शन की अभिलाषा उत्पन्न हुई है और वह उसपर विचार रहे हैं. प्रभु का अवतार गोपनीय है इसलिए वह दर्शन को प्रत्यक्ष नहीं जा सकते क्योंकि इससे भेद खुलेगा.
चौपाई :
रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥
शिवजी विचारते हैं- रावण ने ब्रह्माजी से अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से मांगी थी. ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं. इसलिए यह अवतार लिया है. मैं यदि उनके दर्शन को नहीं जाता तो पछतावा रह जाएगा.
परन्तु महादेव को श्रीराम से भेंट की कोई भी युक्ति उचित नहीं समझ आती थी. शिवजी अपने आराध्य के कष्टों से परिचित हैं. उन कष्टों को विचारते हुए सभी बंधनों से मुक्त शिवजी चिंता के वश में हो जाते हैं.
ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥2॥
पत्नी विरह के श्रीराम के कष्टों को समझते हुए महादेवजी विचारते हैं नीच रावण ने प्रभु को कष्ट देने के लिए मारीच को साथ लिया. मारीच तुरंत कपट मृग बनकर गया.
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥
मूर्ख रावण ने छल से सीताजी को हर लिया. वह श्रीरामचंद्रजी की शक्ति से अंजान है. मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्रीहरि आश्रम में आए और वहां सीताजी को न पाकर उनके नेत्रों में आंसू भर आए.
बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥
श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं. जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है. उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया.
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥
श्री रघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है. उसको पहुंचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं. जो मंदबुद्धि हैं वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं.
महादेव प्रभु की इस माया को समझ नहीं पा रहे. त्रिलोक के पालनहार पत्नी के वियोग से इतने क्षुब्ध, इतने कष्ट में हैं. उनके लिए क्या असंभव! फिर महादेव को बोध होता है कि अभी वह मानवरूप में हैं. उन्हें मानवसुलभ आचरण करना है.
यह विचार आते ही महादेव के मन को शांति मिलती है. महादेव देवाधिदेव हैं संसार के समस्त बंधनों पर विजय प्राप्त कर चुके हैं. वह स्वयं श्रीहरि द्वारा पूजनीय.
महादेव भी श्रीहरि की वंदना करते हैं. यही एक बंधन ऐसा है जिससे न वह छूट पाए और न छोड़ना चाहते हैं. रावण ने सीताजी का हरण कर लिया है.
प्रभु वन में विह्वल हो भटक रहे हैं. महादेव उनकी पीड़ा से व्यथित हैं. सांसारिक रीति है यदि मित्र दुखी हो तो उसकी पीड़ा साझा करनी चाहिए परंतु महादेव के आगे बंधन है कि कहीं इससे प्रभु के कार्य में बाधा न पड़ जाए.
परंतु महादेव खुद को रोक नहीं पाए. वह किस तरह पहुंचे श्रीराम से मिलने और उस मिलन से कैसे महादेव के सामने एक संकट उत्पन्न हो गया. इस प्रसंग पर कल चर्चा करूंगा.
संकलन व संपादनः राजन प्रकाश