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नारदजी ने ब्रह्माजी से कहा- आप व्यर्थ ही व्यथित हैं. जो भगवान विष्णु पर आश्रित है उसको किसी प्रकार की चिंता नहीं करनी चाहिए. भगवान विष्णु मुझे कोई न कोई प्रेरणा देंगे और मैं इस नारायणद्रोही दैत्य की तपस्या भंग करुंगा.

इतनी कथा सुनाने के बाद मार्कंण्डेयजी बोले- नारदजी ने ब्रह्माजी को भरोसा दिलाकार उनकी चिंता कम की और फिर अपने साथ पर्वत मुनि को लेकर वहां से आगे चल दिए.

नारदजी का विश्वास ऐसे ही नहीं था. भगवान श्रीहरि की प्रेरणा से नारदजी को एक सुंदर युक्ति सूझी.

नारदजी और पर्वत मुनि दोनों ही रूप बदलने की विद्या के सिद्धहस्त हैं. दोनों ने पक्षी का रूप लिया और कैलाश शिखर के उस क्षेत्र में पहुंचे जहां हिरण्यकश्यप अपने दो तीन दैत्य मित्रों की सुरक्षा में तप कर रहा था.

जहां दैत्यराज तप कर रहा था कैलाश के उस भाग में बहुत सघन वृक्ष थे. पक्षी रूप धरकर दोनों मुनि वृक्ष की दो आमने-सामने की डाल पर बैठ गए.

दोनों मुनियों ने कलविंक पक्षी की आवाज में बड़ी ही गंभीर वाणी में “ऊं नमो नारायणाय मंत्र” का तीन बार जप किया.

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