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पौराणिक काल की बात है एक बार सहस्रणीकजी के मन में यह जानने की इच्छा हुई कि हिरण्यकश्यपु जैसे विष्णुद्रोही के घर में प्रह्लाद जैसा विष्णु उपासक कैसे पैदा हुआ. उन्होंने श्री मार्कण्डेयजी से इस संदर्भ में अपनी इच्छा प्रकट की.

मार्कण्डेयजी ने कथा सुनानी शुरू की- सहस्रणीक, दिति और कश्यप का पुत्र हिरण्यकश्यप बहुत बलशाली दैत्य था. एक समय ऐसा भी था कि त्रिभुवन ही उसके अधीन कहा जाने लगा.

अपार शक्तियां पाकर उसमें बड़ा घमंड़ आ गया. वह और भी शक्तियां अर्जित करने की सोचने लगा.

उसने निर्णय लिया कि वह तप करेगा. उसने ऐसा घोर तप करना आरंभ किया कि धरती कांपने लगी. धरती ऐसे तपस्वी को संभालने में असमर्थ पा रही थी.

पृथ्वी विचलित हुई तो भूकंप आ गया. पशु-पक्षी, जीव-जंतु भयभीत हो उठे और पूरी प्रकृति में ही हड़कंप मच गया.

हिरण्यकश्यप को उसके दरबारियों, बंधुओं, मित्रों, भृत्य ने उसे सुझाया कि तीनों लोक आप के अधीन हैं.सारे देवताओं ओ आपने जीत रखा है. आपको किसी का न तो भय है न ही कोई अन्य समस्या. आपको अब और क्या चाहिए.

फिर आपके इस तप पर जाने से पूर्व आग लगने और भूकंप आने जैसे अपशकुन भी हो रहे हैं.

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