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नीति के ज्ञाता चूहे ने कहा- तुम्हारी बात मैंने ध्यान से सुनी. नीति कहती है कि इस जगत में मित्र और शत्रु की पहचान अत्यंत सूक्ष्म है. अवसर आने पर मित्र शत्रु और शत्रु मित्र बन जाते हैं.

जब कोई प्राणी काम और क्रोध के अधीन हो तो यह समझना असंभव है कि वे मित्र हैं या शत्रु. मैत्री कोई स्थिर वस्तु नहीं क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है. जो विश्वासपात्र न हो उस पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए.

माता-पिता, पुत्र, बंधु-बांधव सबके स्नेह में कहीं न कहीं स्वार्थ होता ही है. पतित पुत्र को माता-पिता त्याग देते हैं. कारण समाप्त होने पर प्रीति भी खत्म हो जाती है. तुम आचरण से ही मेरे शत्रु हो. हमारी मित्रता में दोनों का स्वार्थ था.

संकटमुक्त होते ही तुम्हारी स्वाभाविक प्रवृति जाग गई है इसलिए मैं नहीं मिल सकता. मैंने शुक्राचार्य की नीति अपनाई कि जब स्वयं और शत्रु पर समान संकट आए तो निर्बल को बलवान शत्रु से मैत्री करके सावधानीपूर्वक काम निकाल लेना चाहिए.

काम निकलते ही वह मैत्री व्यर्थ हो जाती है इसलिए उसे समाप्त कर देना चाहिए. इतना कहकर चूहा बिल में घुस गया. (महाभारत की कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

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