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परंतु महादेव तो उसकी मंशा से परिचित थे इसलिए उसकी हठ साधना पर भी भगवान महेश्वर प्रसन्न नहीं हुए. कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब दशानन एक-एक सिर काटकर शिवजी को समर्पित करने लगा.

वह शास्त्र विधि से महादेव की आराधना करता और फिर भेंटस्वरूप पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटकर भगवान को समर्पित कर देता था. रक्तरंजित रावण ने इस प्रकार क्रमश: अपने नौ मस्तक काट डाले.

जब वह अपना अन्तिम दसवां मस्तक काटना ही चाहता था. शिवभक्त के प्राण संकट में देखकर भगवान भोलेनाथ साक्षात प्रकट हुए और रावण के सभी मस्तकों को उसके शरीर से पूर्ववत जोड़ दिया.

महादेव ने रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया. भगवान की स्तुति करते हुए रावण ने कहा– देवेश्वर! मैं आपकी शरण में हूं. आप प्रसन्न हैं तो लंका चलें और मेरा मनोरथ सिद्ध करें.

रावण की बात सुनकर भगवान शिव असमंजस में थे. उन्होंने धर्मसंकट टालने के लिए कहा–तुम जिस शिवलिंग की आराधना कर रहे थे उसे भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी ले जाओ.

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