भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण में हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है. चतुर्मास में श्रीहरि विष्णु अन्य देवताओं के साथ योगनिद्रा में चले जाते हैं. आषाढ़ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी कहलाती है.
हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी को करें श्रीहरि की विधिवत पूजा

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आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्लपक्ष एकादशी यानी चार मास तक सृष्टि के पालन का भार उठा रहे नारायण विश्राम में जाएंगे. इसे योगनिद्रा कहते हैं. योगनिद्रा की अवधि चतुर्मास के नाम से जानी जाती है. चतुर्मास तीर्थों के सेवन का अवसर है. आषाढ़ शुक्लपक्ष की एकादशी हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी कहलाती है. कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी को देवउठनी, देव प्रबोधिनी या देवोत्थान एकादशी कहा जाता है.

चतुर्माश में में यज्ञोपवीत संस्कार, विवाह, दीक्षाग्रहण, यज्ञ, ग्रहप्रवेश, गोदान, प्रतिष्ठा एवं जितने भी शुभ कर्म है, सभी त्याज्य होते हैं. भविष्य पुराण, पद्म पुराण तथा श्रीमद्भागवत पुराण में हरिशयन को योगनिद्रा कहा गया है. यह समय बहुत सावधानी का होता है. इस काल में पित्त स्वरूप अग्नि की गति शांत हो जाने के कारण शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है. चातुर्मास अवधि में विविध प्रकार के कीटाणु और रोगकारक जंतु उत्पन्न हो जाते हैं.

इस प्रकार देखा जाए तो चार मास में नियमों में बांधकर हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने ऐसी व्यवहारिक व्यवस्था बनाई जो स्वास्थ्य की दृष्टि से अद्भुत है. यह एक प्रकार की चिकित्सा व्यवस्था है.

इस पोस्ट में आपको क्या-क्या मिलेगा?

  • हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी क्यों की जाती है?
  • हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी की विधिवत व्रत-पूजन की विधि.
  • शुभफल के लिए चतुर्मास में किए जाने वाले कार्यों की शास्त्र आधारित जानकारी.
  • हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी की व्रत कथा.
  • हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी से जुड़ी परंपराएं.

भागवत पुराण और वामन पुराण में वर्णन आता है कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार में राजा बलि से तीन पग भूमि मांगी. दो पग भूमि का दान चुकाने में बलि का सर्वस्व चला गया. तीसरे पग के लिए बलि ने अपना मस्तक आगे कर दिया.

भगवान वामन इससे अत्यंत प्रसन्न हो गए. उन्होंने बलि को सुतल लोक में स्थान दिया और अगले मन्वतंर में इंद्र होने का वरदान भी दिया. बलि ने प्रभु से एक और इच्छा प्रकट की.

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बलि ने कहा- प्रभु मुझे आपके सान्निध्य में सुरक्षा चाहिए. श्रीहरि सहर्ष तैयार हो गए और वह बलि के द्वार पर द्वारपाल की तरह पहरेदारी को तैनात हो गए. प्रभु के जाने से माता लक्ष्मी उदास हो गईं.

वह स्वयं बलि के यहां सेवा में लग गईं. उन्होंले बलि को भाई बना लिया. बहन स्वरूप उन्होंने बलि से अपने पति को वापस मांग लिया लेकिल बलि ने शर्त रखी कि चार मास श्रीहरि उनके पास विराजमान रहेंगे.

श्रीहरि चार मास तक (चातुर्मास) पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं. इसी कारण आषाढ़ मास की शुक्लपक्ष की एकादशी को हरिशयनी एकादशी या देवशयनी एकादशी कहते हैं.

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चाहते हैं कल्याण तो चतुर्मास में करें ये दस कामः

  • चतुर्मास के चार महीनों में विभिन्न फलों के लिए विभिन्न पदार्थों के त्याग की महिमा बताई गई है.
  • देह शुद्धि या सुंदरता के लिए पंचगव्य का सेवन करें.
  • वंशवृद्धि के लिए नियमित दूध का सेवन करें.
  • मधुर स्वर के लिए गुड़ का त्याग करना चाहिए.
  • दीर्घायु होने व पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का त्याग करना चाहिए.
  • कड़वे तेल का त्याग करने से शत्रु परास्त होते हैं.
  • मीठे तेल का त्याग से ऐश्वर्य प्राप्त होता है.
  • किसी भी प्रकार के पुष्प व सुंदर भोगों का त्याग करने से स्वर्गलाभ होता है.
  • देवशयन के चार मासों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्यों यथासंभव त्याग करें.
  • पलंग पर सोना, संसर्ग, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया भोजन, मूली, परवल एवं बैंगन का भी त्याग बताया गया है.

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देवशयनी एकादशी या हरिशयनी एकादशी की व्रत विधिः

  • देवशयनी एकादशी विशेष पूजा का दिन है. इसके व्रत का विशेष लाभ बताया गया है. एकादशी को प्रातःकाल उठें, घर की साफ-सफाई करें.  नित्यकर्म से निवृत्त हो घर के पूजनस्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर श्रीहरि की मूर्ति की स्थापना कर उसका षोड्शोपचार पूजन करें.
  • इसके बाद भगवान को पीतांबर आदि से विभूषित करें.
  • उसके बाद व्रत की कथा सुननी चाहिए और फिर आरती कर प्रसाद बांटें.
  • फिर प्रभु के शयन का प्रबंध कर चादर से ढँके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर ठाकुरजी को शयन कराना चाहिए.

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देवशयनी एकादशी या हरिशयनी एकादशी व्रत कथाः

एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से देवशयनी एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की. ब्रह्माजी ने बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे. उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी.

परंतु उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा. इस दुर्भिक्ष (अकाल) के कारण चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई. यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई. अन्न ही उपलब्ध न था तो धार्मिक कार्यों कैसे होते.

प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी गुहार लगाई. राजा तो इसको लेकर पहले से ही दुःखी थे. वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है?

फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए. वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया.

ऋषिवर ने आशीर्वाद देकर कुशलक्षेम पूछा, फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा.

राजा मांधाता ने हाथ जोड़कर कहा- ‘महात्मन्‌! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ. आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें.

यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- ‘हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है. इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है. इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है. ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तप कर रहा है.

यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है. जब तक वह मृत्यु को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा. दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है.

किंतु राजा का हृदय एक नरपराध शूद्र तपस्वी का वध करने को तैयार नहीं हुआ. उन्होंने कहा- ‘हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएं.

महर्षि अंगिरा ने बताया- आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें. इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी. राजा राजधानी लौट आए और एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया. व्रत के प्रभाव से राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया.

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3 COMMENTS

  1. जय श्री राधे कृष्णा

    आप का हार्दिक धन्यवाद

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