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उधर दैत्यों को भी लक्ष्मी क्या मिली उन्हें भी उनकी प्राप्ति होते ही बहुत गर्व हो गया. दैत्यगण आपस में एक दूसरे से कहने लगे- मैं ही देवता हूं. मैं ही यज्ञ हूं. मैं ही ब्राह्मण हूं. सम्पूर्ण जगत मेरा ही स्वरूप है. ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, चन्द्र, आदि सब मैं ही हूं.
लक्ष्मीजी ने देखा कि दैत्य तो देवताओं से भी अहंकार के मामले में आगे है यही नहीं इस प्रकार अतिशय अहंकारमति में दैत्य बहुत अधिक अनैतिक काम करने लगे.
दैत्यों की भी यह दशा देखकर व्याकुल हो वह भृगुकन्या भगवती श्रीलक्ष्मी क्षीर सागर में समा गईं. क्षीर सागर में लक्ष्मी के प्रवेश करने से तीनों लोक श्रीविहीन होकर एक दम से निस्तेज से हो गए.
देवराज इंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति से पूछा– महाराज! कोई ऐसा व्रत बताए जिसका अनुष्ठान करने से लक्ष्मी को प्रसन्न किया जा सके. लक्ष्मीजी एक बार प्रसन्न को जायें तो फिर हम उनको पुन: अपने वहां स्थिर भाव से रहने की प्रार्थना कर सकते हैं.
देवगुरु बृहस्पति बोले– देवेन्द्र! मैं इस सम्बन्ध में आपको अत्यंत गोपनीय श्रीपंचमी-व्रत का विधान बतलाता हूँ. इसके करने से आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी देवी प्रसन्न होंगी.
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