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शत्रुजित नामक एक राजा था. उसके यज्ञों में सोमपान करके इंद्र उस पर विशेष प्रसन्न हो गये थे. उन्ही की विशेष कृपा से शत्रुजित को एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जिसका नाम ऋतुध्वज था.

एक बार की बात है. गालब मुनि राजा शत्रुजित के पास गये. उन्होंने राजा से कहा कि एक दैत्य उनकी तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करता है. क्षत्रिय धर्म निभाते हुये उसको मारने का उयाय कीजिये.

उसी समय आकाशवाणी हुई, राजा शत्रुजित का पुत्र ऋतुध्वज विशेष घोड़े पर जाकर दैत्य को मारेगा. मुनि का ही नहीं अनेक य्ज्ञों को निर्विघ्न करेगा. तभी दैत्य के हनन में साधनस्वरुप एक घोड़ा आकाश से नीचे उतरा.

यह कुवलय नामक घोड़ा था, यह घोड़ा बिना थके आकाश, जल, पृथ्वी, पर समान गति से चल, दौड़ और उड‌ सकता था. राजा ने ऋतुध्वज और कुवलय नामक घोड़े को गालब मुनि के साथ कर दिया. पुत्र से कहा- विजयी भव.

ऋतुध्वज उस विशेष घोड़े पर चढ़कर गालब मुनि के आश्रम गया और राक्षस के आने पर उसका पीछा करने लगा, राजकुमार ने चलते घोड़े पर ही तीर धनुष संभाल रखा था. राक्षस बनैले सूअर के रुप में था.

राजकुमार ऋतुध्वज के वाणों से बिंधकर वह कभी झाड़ी के पीछे छुप जाता, कभी गड्ढे में कूद जाता. सुअर बना राक्षस सैकडों बाणों से बिंध चुक था, ऐसे ही में वह एक गड्ढे में कूदा तो उसके पीछे-पीछे घोड़े सहित राज कुमार भी वहीं कूद गया.

आश्चर्य कि वहाँ सूअर तो दिखायी नहीं दिया किंतु एक सुनसान नगर दिखायी पड़ा. उस नगर की साफ सुथरी सड़क पर एक सुंदरी व्यस्तता में तेजी से एक ओर से चली आ रही थी.

राजकुमार ऋतुध्वज उसके पीछे पीछे चल पड़ा, उसका पीछा करता हुआ राजा एक बहुत ही सुंदर से महल में पहुँचा वहाँ सोने के पलंग चमचमाते परिधान से सजी एक राजकुमारी बैठी थी.

जिस सुंदरी को उसने पहले पहल सड़क पर आते देखा था, वह उस राजकुमारी की सेवा भाव में लग गयी, वह राजकुमारी की दासी थी, कुंडला नाम था उसका.
राजकुमारी का नाम मदालसा था.

ऋतुध्वज कुंडला से बातचीत कर मदालसा की जानकारी प्राप्त की. मदालसा गंधर्वराज विश्वावसु की कन्या थी. व्रजकेतु नामक दानव का पुत्र पातालकेतु उसे हरकर यहाँ ले आया है. पातालकेतु मदालसा को पसंद नहीं.

मदालसा के दुखी होने पर कामधेनु ने प्रकट होकर आश्वासन दिया था कि जो राजकुमार उस दैत्य को अपने वाणों से बींध देगा, उसी से इसका विवाह होगा. ऋतुध्वज ने बताया कि मैंने ही उस दानव को अपने बाणों से बींधा है.

यह जानकर कुंडला ने अपने कुलगुरु का आवाहन किया. कुलगुरु तंबुरु प्रकट हुये और उन्होंने कहा हां ऐसा ही है, ऋतुध्वज ने ही दैत्य को मारा है, और उसके उपरांत ऋतुध्वज तथा मदालसा का विवाह संस्कार करवाया.

तुंबरू अपना दायित्व निभा कर लौटे तो मदालसा की दासी कुंडला भी अपना कार्य पूर्ण समझ तपस्या के लिये चली गयी. उधर राजकुमार ऋतुध्वज मदालसा को लेकर अपने नगर को चला तो दैत्यों ने उस पर आक्रमण कर दिया.

वज्रकेतु और पातालकेतु सहित वहां के सभी दैत्यों का सफाया करके वह अपने पिता शत्रुजित के पास पहुंचा. आकाश-पाताल तथा पर्वतों पर अपने घोड़े कुवलय पर बैठे घूमते रहने के कारण कुवलयाश्व के नाम से प्रसिद्ध हुआ.

तपस्वियों की यज्ञ रक्षा की उसे इस तरह की लगन लगी कि अपने पिता शत्रुजित के आशीर्वाद और आज्ञा से वह प्रतिदिन प्रात: काल उसी घोड़े पर बैठकर ब्राह्मणों की रक्षा के लिए निकल जाया करता था.

एक दिन वह एक भव्य आश्रम के निकट पहुँचा. वहाँ पातालकेतु का भाई तालकेतु ब्राह्मण वेश में रह रहा था. राजकुमार ऋतुध्वज वहां पहुंचा तो तालकेतु को लगा, अवसर अच्छा है भाई का बदला लेना चाहिए.

ब्राह्मण का वेश तो उसका था ही उसने राजकुमार ऋतुध्वज से कहा, राजन यज्ञादि में स्वर्ण की आवश्यकता है, सोने की आहुति बिना कई यज्ञ पूरे नहीं होते. आप अपना स्वर्ण हार दे दीजिए.

राजकुमार जो ब्राह्मणों की और उनके यज्ञ के लिये तत्पर था उसको इस बात में कोई चाल नहीं दिखी. तालकेतु ने यज्ञ में स्वर्ण अर्पण के निमित्त अपना स्वर्णहार उसे सहर्ष दे दिया.

तब तालकेतु ने राजकुमार को धन्यवाद और आशीर्वाद देकर कहा कि राजन मेरे एक कार्य और कर दें, मैं जब तक स्नान को जाता हूं तब तक आश्रम में रह कर विश्राम करते हुए इसकी रक्षा करें.

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