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“मै कंदर्पमणि हूँ।” वो बोला।

एक विलक्षण सा मद था उस स्वर में। शरीर में झुनझुनाहट सी हो गयी। बिना कुछ कहे मैंने हाथ जोड़ लिए।

“ये मेरा अहिरण्यक-प्रदेश है! मैं सहस्त्र वर्षों से यहीं हूँ। यहां मेरा शासन है।” उसने कहा।

सम्भवतः हमारे कुछ पुण्य संचित थे, जो इन नागराज का अलौकिक रूप देखने को मिला। मैं धन्य हो गया था। वाणी मूक थी, आंखों से आंसू बह रहे थे। बस हाथ जोड़ लिए। और तभी फिर से वही प्रकाश आँखें चुँधियाईं। अपने हाथ आगे करके आंखें ढंक ली। जब खोली तो सामने वही नागराज थे लेकिन अपने उसी सर्प-रूप में।

मैंने फिर से सर झुका कर प्रणाम किया। कुछ पल ऐसे ही बैठे रहे, उनका आशीर्वाद ग्रहण करते रहे। फिर एक फुफकार मारकर अपना फन उठायाऔर फिर पीछे हटकर चल दिए। दूर तक मणि का प्रकाश दिखता रहा। चलता रहा वह प्रकाश सर्पराज के आगे आगे और फिर धूमिल होता गया। और जैसे फिर शून्य में लोप होकर ओझल हो गया।

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