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इस शाप से सुप्रतीक के तेवर चढ़ गए. उसने क्रोध में आकर बड़े भाई को भी शाप दे दिया- मैं यदि हाथी होऊंगा तो तुम कछुआ होगे. गरुड़, इस तरह दोनों भाई धन के लालच से एक दूसरे को शाप देकर हाथी और कछुआ हो गये हैं.

वे दोनों इस जन्म में भी आपस में लड़ते रहते हैं. उनकी इस लड़ाई से दूसरे जंतु बहुत दुखी हैं. अत: गरुड़ तुम जाकर उन दोनो भयंकर जन्तुओं को खा जाओ और अमृत ले आओ. इस तरह दोनों का बैर मिट जाएगा.

पिता की आज्ञा प्राप्त कर गरुड़ उस सरोवर पर गए. उन्होंने एक नख से हाथी और दूसरे से कछुए को पकड़ा और बहुत ऊंचे उड़कर अलम्ब तीर्थ में जा पहुँचे. सुवर्णगिरि पर्वत के वृक्ष गरुड़ को देखते ही इस भय से कांपने लगे कि कहीं इनके धक्के से हम टूट न जायें.

उनको भयभीत देखकर गरुड़ जी दूसरी ओर निकल गए. उधर एक बड़ा सा बरगद था. बरगद ने गरुड़ जी को हाथी और कछुए को लेकर उड़ते देखा तो कहा कि तुम मेरी सौ योजन लम्बी डाल पर बैठकर हाथी और कछुए को खा सकते हो.

गरुड़ बरगद की शाखा पर बैठे तो वह टूट गयी और गिरने लगी. गरुड़ ने गिरते-गिरते उस शाखा को पकड़ लिया और बड़े आश्चर्य से देखा कि उसमें नीचे की ओर सिर करके वालखिल्य नामक ऋषिगण लटक रहे हैं.

गरुड़ को स्मरण हुआ कि मां ने कहा है उनके कारण किसी भी ब्राह्मण की हत्या न हो. यदि शाखा गिर गयी तो ये तपस्वी ब्रह्मर्षि मर जाएंगे. उन्होंने झपटकर अपनी चोंच से वृक्ष की शाखा पकड़ ली साथ ही, हाथी और कछुए को पंजों में दबोचे आकाश में उड़ने लगे.
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