राम के दर्शन होते हैं बस दृष्टि को जरा सा केंद्रित करने की जरूरत है. ध्यान को जरा एकाग्र करने की जरूरत है. राम के दर्शन से पहले राम के भक्तों के दर्शन करने होंगे. उन्हें हृदय में लाना होगा. दर्शन यदि श्री राम के करने हैं तो फिर दृष्टि तो जटायु और संपाति की चाहिए. मानवदृष्टि से नहीं दिखेंगे. मानव को जटायु और संपाति जैसी गिद्धदृष्टि चाहिए.

आपको श्री राम कथाएं बहुत सुनाईं. आज की पोस्ट में श्री राम के दर्शन उनके भक्तों की दृष्टि हो होगा. इस तरह आपको भी खुद को परखने का मौका मिलेगा कि क्या आपको श्री राम के भक्तों की भी सुधि है. उनका भी स्मरण है या भूल गए. तो जो भक्त को भूल जाते हैं उन्हें श्री राम भूल जाते हैं. भक्तों का ध्यान रखते हैं इसीलिए तो श्री राम हैं. आपका भी ध्यान रखेंगे और आपको भी कोई भूले तो उसे वह भूला देंगे. यह क्रम तो टूटना नहीं चाहिए न.

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यदि आप श्री राम के भक्त हैं तो इस पोस्ट को कई बार पढ़िए. इसमें जो भी श्रीराम के भक्तों का नाम मैं लूंगा क्या आपको उनमें से सारे स्मरण हैं? श्रीराम की भक्ति की जो भी विधियां यहां बताई गईं हैं उस पर कई दृष्टांत पहले सुना चुके हैं. क्या आपको वह स्मरण हैं? यदि नहीं तो अभी भक्ति में और तपिए, और पकिए. मैं भी इसी प्रयास में हूं. भक्ति को तपाने की कला सीख रहा हूं.

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तो एक काम करते हैं तो भक्त हुए. मैं और आप. दोनों ही भक्त कच्चे भक्त हैं. दोनों को श्रीराम की खोज है. दोनों का निश्चय है कि खोजकर रहेंगे. श्रीराम की भक्ति पाने की जो रीति मैंने अब तक खोजी है, पढ़ी-सुनी है वह सब एक स्थान पर देता जाता हूं. आप उचित लगे तो उसे पढ़कर देखिए. शायद आपको भी कुछ लाभ हो. न हो तो पढ़ना बंद कर दीजिएगा. मैं यहां कम ही लिख पाता हूं. यहां लिखने में बड़े पेंच है. सरलता से जहां लिखता हूं उसका रास्ता आपको बताता हूं.

मेेरे लिए वहां लिखना सरल आपके लिए पढ़ना सरल. प्रभु शरणम् ऐप्प की बात कर रहा हूं. लिंक दे रहा हूं. क्लिक करके डाउनलोड कर लीजिए. न पसंद आए तो डिलिट कर दीजिएगा पर एक बार जांच परख तो होनी चाहिए.

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अब कथा आगे बढ़ाते हैं-

हनुमानजी ने विभीषणजी का संशय मिटाने के लिए सीना चीरकर दिखा दिया था कि उनके रोम-रोम में बसते हैं श्रीराम. हनुमानजी परम रामभक्त हैं पर विभीषण की भी श्री राम के चरणों में अपार श्रद्धा है. दोनों परमभक्त हैं पर विभीषण हनुमान नहीं बन पाते. विभीषण ने कुछ कम बड़ा त्याग नहीं किया था फिर भी हनुमान नहीं हो पाए.

विश्वास का भेद है. यही विभीषण और हनुमान का भेद बताता है. संतों-मनीषियों को क्यों दिख जाते हैं श्रीराम और हम-आप जीवनभर तरसते रह जाते हैं? श्रीराम हमारे स्वप्न में भी नहीं आते और सुतीक्ष्णजी को खोजते-खोजते पहुंच जाते हैं. संसार राम को खोज रहा है और राम सुतीक्ष्णजी का पता पूछ रहे हैं. श्रीराम का दर्शन कठिन है पर असंभव नहीं. वह कैसे?

भगवान की लीलाओं पर विश्वास पंचवटी जैसा होना चाहिए, आपके शरीर में मिल जाएंगे श्रीराम.

भगवान पंचवटी में क्यों आश्रय लेते हैं. यदि पंचवटी को समझ लें तो फिर कुछ और समझने के लिए इस संसार में शेष नहीं रहता. इसी में आपको समस्त संसार दिख जाएगा. मनुष्य को मोक्ष के लिए जितना देखना-समझना आवश्यक है वह सब है इसी पंचवटी में. बहुत ध्यान से और विश्वास के साथ इस पंचवटी का प्रसंग समझिएगा. एक बार में न समझ आए तो बार-बार प्रयास करिएगा क्योंकि यदि समझ आ गया तो धन्यभाग की अनुभूति होगी.

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पंचानाम् वटानाम् समाहारः इति पंचवटी.
जहां पांच-पांच वटवृक्ष हों उसे पंचवटी  कहते हैं लेकिन चित्रकूट में एक ही वटवृक्ष है और  चार  अन्य  वृक्ष  हैं.  भगवान  राम  की  कुटिया  पांच  वृक्षों  के  नीचे बनती  है.  चित्रकूट  और  पंचवटी  में  थोडा  सा  अंतर  है. चित्रकूट  में  चार  पृथक-पृथक  वृक्ष  हैं- जामुन, पाकर, रसाल और तमाल. उनके  बीच  में  बरगद  का वृक्ष  है.

पहले चित्रकूट में निवास करना होता है फिर पंचवटी में. इसके गहरे अर्थ हैं, ध्यान से समझना होगा. केवट कहता  है-

नाथ  देखियहिं बिटप  बिशाला।
पाकरि जम्बु रसाल  तमाला।।
जिन्ह तरुवरन मध्य  वट  सोहा ।
मंजु  विशाल  देखि  मन  मोहा।।

इसका  संकेत  बडा  स्पष्ट  है. इनमें  चार  वृक्ष-  नाम,  रूप, लीला और  धाम  के  हैं. पाकर नाम का  वृक्ष  है,  जम्बू रूप  का  वृक्ष  है,  रसाल  लीला  का  वृक्ष  है  और  तमाल  धाम  का  वृक्ष  है.  भगवान  के  नाम,  रूप,  लीला  और  धाम  के  बीच  में  जो  वट  वृक्ष  है  यह  है  भगवान  के  चरणों  में  विश्वास.

वट विस्वास अटल निज धरमा।
तीरथराज समाज  सुकरमा।

अपने धर्म पर दृढ विश्वास ही बरगद का  वृक्ष  है. नाम,  रूप,  लीला,  धाम  इन  चारों  पर  जो  विश्वास  है  वही  यहां  वटवृक्ष  है. गंगा पार करने के बाद इन पांचों वृक्षों के  नीचे ही भगवान ने कुटिया डाली है.

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भगवान आगे की गति करते हैं. चित्रकूट में पहुंचे हैं. वहां भी उन्होंने पांच वृक्षों के आश्रय में कुटिया डाली है. वहां पहले के चार  वृक्ष भी  नहीं  हैं. केवल पांच बरगद के ही वृक्ष हैं. कितना बड़ा संकेत है इसमें.

नाम, रूप, लीला, धाम की बात छोड़ो अब तो भगवान के पांच विषयों पर विश्वास करना पडेगा, तब आगे की लीला सफल हो सकेगी. तभी लीलाओं का मर्म समझ आएगा.

भगवान की पांच लीलाएं हैं-

बाल  लीला,
विवाह  लीला
अरण्य  लीला
रण  लीला
राज्य  लीला

संयोग  देखिए  इन  पांचों  लीलाओं  में  किसी न किसी को मोह हुआ अवश्य है. (इन लीलाओं में मोह के प्रसंग हमने पहले भी आपको सुनाएं हैं, प्रभु शरणम् में पुनः कभी सुना देंगे.)

भगवान की बाल  लीला  में  भुसुंडिजी को मोह हुआ.
भगवान की  विवाह  लीला  में  ब्रह्माजी  को मोह हुआ.
भगवान  की  अरण्य या वन लीला  में  सतीजी  को मोह हुआ.
भगवान  की  रण  लीला  में गरुड़ जी को मोह हुआ और
भगवान  की  राज्य  लीलाओं  में  तो उनके गुरू वशिष्ठजी को ही मोह हो गया.

वन लीलाओं  में  भगवान  अभिनयवन में थे, शिवजी प्रणयवन में थे और सतीजी संशय  वन में थीं. शिवजी ने श्रीराम को देखा तो उनके पांचों मुख एक साथ बोल पड़े- “जय  सच्चिदानंद  जग  पावन। अस  कहि  चलेउ  मनोज  नसावन ।।”

काम को विजय करने वाले शिवजी के पांचों मुख श्रीराम को देखते ही विनीत भाव में कहते हैं- जय सच्चिदानंद.

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शिवजी के पांचों मुखों का एकसाथ बोल पड़ना अपने आप में एक विचित्र और अद्भुत संयोग है. यहां समस्त ज्ञान के अनंत सागर शिवजी  भगवान  के  पांचों  स्वरूप  बतला  रहे हैं.

हे  सतस्वरूप! आपकी जय  हो.
हे  चितस्वरूप! आपकी जय  हो.
हे  आनंदस्वरूप! आपकी जय हो.
हे  जगपावनस्वरूप! आपकी जय हो.
हे  मनोजनसावनस्वरूप! आपकी जय हो.

भगवान  की  बाल लीला  सतलीला  है.  भगवान  की  विवाह लीला  चितलीला  है  क्योंकि  यहां  पर  भगवान  सबके  चित  को  चुरा लेते हैं. जनक जैसे  ज्ञानी  भी  विदेह  से  सदेह  हो  गए  हैं.

वन  लीला  भगवान  की  आनंदलीला  है.  हम और आप भगवान के  वन जाने की बात से दुखी हैं पर भगवान  को तो आनंद हो  रहा  है.  भगवान  के  एक  बूंद  भी  आंसू  नहीं गिरे हैं.

रण  लीला  भगवान  की   जगपावनलीला  है.  भगवान  इसमें  राक्षसों  का  वध  करके  जग  को  पवित्र  करते  हैं.

राज्य  लीला  भगवान  की  मनोजनसावन  लीला  है.  जहां  भगवान  राम  रहते  हैं वहां  मनोज यानी काम  रहता  नहीं  है.

राजा  बनने  के  बाद  भगवान गुरु  वशिष्ठ  के  पांव धोने के बाद चरणोदक पांच-छह  कटोरी  पी  गए हैं. वशिष्ठ  जी  मोहित  हो  गए कि  जिनके  चरण  के  एक  बिंदु  से  गंगाजी  निकली  वो  मेरा  चरणोदक ले  रहे  हैं.

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देखि देखि आचरण तुम्हारा। होत मोह मम हृदय अपारा ।।

वशिष्ठजी कह रहे हैं- आपके  भिन्न-भिन्न आचरणों  को  देखकर  मेरे  मन  में  मोह  हो  रहा  है.

इसलिए  पंचवटी  का  तात्पर्य  है  कि  भगवान  की  पांच  लीलाओं  में  मोह  का न  होना. पांचों  लीलाओं  में  जो  विश्वास  है  वही  है  पंचवटी और  उसी  में  कुटिया बनाकर  भगवान  रहते  हैं.

इसी  पंचवटी  में  जहाँ  पाँचों  लीलाओं  पर  विश्वास  रूपी  पांच  वट  वृक्ष  हैं  उनकी  छाया  में  भगवान  श्रीराम  सीताजी  लक्ष्मण  सहित  बैठे  हैं.

विषय पांच कहे गए हैं- शब्द,  रूप,  रस,  गंध  और  स्पर्श.

उसी प्रकार पंच  क्लेश कहे गए हैं- काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं मत्सर.

पंच विषयों और पंच क्लेशों से  दूर  रहकर पांच ज्ञानेन्द्रियो- आँख, कान, नाक, जिह्वा  और त्वचा तथा पंच  कर्मेन्द्रियों- हाथ, मुख, पांव, गुदा और लिंग को वश में करके जो भगवान  की  पाँचों  लीलाओं  में  विश्वास  कर  लेता  है उसका जीवन धन्य हो जाता है.

पंचवटी  पंच प्राण  हैं. प्राण पांच कहे गए हैं- प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान.

शरीर में इन पांच प्राणों का संयोग है. भगवान  हमारे  शरीर  के  भीतर  ही  पंचवटी  बना  कर  वास  करने  लगते  हैं, बस हमें केवल अपने भीतर विश्वास का वटवृक्ष अपने भीतर  उगाना है. हनुमानजी इससे युक्त हैं इसलिए उनके रग-रग में भगवान वास करते हैं. विभीषणजी को सीना चीरकर उन्होंने प्रमाण भी दिया था.

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हमारा  शरीर  भी  पंचवटी की  तरह  है-

क्षिति  जल  पावक  गगन  समीरा।
पंच रचित  यह  अधम  शरीरा।।

बस  भगवान  की  सभी  लीलाओं  में  जब  हमें  भी  विश्वास  हो  जाए  तो  भगवान  हमारे  भीतर  भी  पंचवटी  बनाकर  रहने  लगेगें.

जब भगवान हमारे अंदर पंचवटी बनाकर रहने लगें तो हमें क्या प्राप्त हो सकता है-

करतल  होहिं  पदारथ  चारी।
तेइ  सिय  राम  कहेउ  कामारी।।

भक्त तो  अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष  ये  चार  छोड़  ही  देगा जैसा संतों में श्रेष्ठ भरत जी ने कर दिया है और उसे मिलेगी भगवान की  भक्ति. कौन  सी  भक्ति इससे प्राप्त होती है. चार दोष छूटेंगे तो भक्तिरूपी चार अमृत कलश मिलेंगे-

निर्भरा भक्ति
अविरला भक्ति
अनपायनी भक्ति
प्रेमा  भक्ति

तब आप और हम सभी हम अपनी पांचों ज्ञानेन्द्रियों से शिवजी के समान बोल पडेंगे पूरे विस्वास के साथ-

जय  सच्चिदानंद  जग  पावन ।
अस  कहि  चलेउ  मनोज  नसावन ।।

पांचों लीला  पर  विस्वास  करने  लगेंगे. भगवान भी  वटवृक्ष स्वरूप शिव की छाया में  बैठ  जायेंगे  और  शिव  की  जटा रूपी वटवृक्ष की जटा से पंखे की हवा लेने लगेंगे और  भगवान शंकर के  बडे  कृपापात्र  हो  जायेंगे.

वह कैसे?

शंकर  राम  रूप  अनुरागे।
नयन पंचदश अतिप्रिय लागे।।

भगवान  राम  को  देखने  के  बाद  विवाह  के  समय शिवजी के पांच मुख और पंद्रह  नेत्र राम अनुरागी  हो  गये.

तीसरा  नेत्र  एक  ही  बार  खुला था और कामदेव भस्म हो गया था. यहां तो पंद्रह नेत्र खुले हैं. विश्वास  के  साथ  सब  लीलाओं  में  विश्वास  करते  हुए  अपने  हृदयस्थल में रामजी  को  बैठा लो. रामजी  रहेंगे  तो  काम की क्या औकात कोई  भी  विकार  नहीं  आयेगा.

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और राम प्रसन्न हैं तो शिव के कोपभाजन बनने से  बचे  रहोगे. कृपा  हरि  और  हर  दोनों  की  होगी  तो  ब्रह्म के समान  आप  और  हम  भी हो जायेगे. जहां हरि और हर बसने लगें वह ब्रह्मस्वरूप हो जाता है जैसे जटायुजी देहत्यागने के बाद हो गए थे.

गीध  देह  तजि  धरि  हरि  रूपा।
भूषन  बहु  पट  पीत  अनूपा।।

।।जय जय सियाराम।।

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