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जब श्रीराम ने रणक्षेत्र में महादेव को देखा तो शस्त्र त्यागकर उन्हें प्रणाम कर स्तुति की. श्रीराम ने शिव की स्तुति करते कहा- आपके ही प्रताप से मैंने रावण का वध किया. यह अश्वमेघ यज्ञ भी आपकी ही इच्छा से हो रहा है. आप प्रसन्न हो युद्ध का अंत करें.

शिवजी बोले- हे प्रभु श्रीराम मैं तो स्वयं आपका अनुरागी हूं. आपसे युद्ध की सोच भी नहीं सकता लेकिन मैंने वीरमणि की रक्षा का वरदान दिया है. वरदान से पीछे नहीं हट सकता. आप संकोच छोड़ कर मुझसे युद्ध करके मुझे हर्षित करें.

महादेव की आज्ञा मान कर श्रीराम ने युद्ध आरंभ किया. भीषण युद्ध छिड़ गया. श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महादेव पर कर दिया पर वह महादेव को संतुष्ट नहीं हो सके. कोई राह नहीं निकल रही थी.

अंत में श्रीराम ने शिवजी के पाशुपत अस्त्र का संधान किया और महादेव से बोले- हे प्रभु, यह आपका ही दिया वरदान है. इस ब्रह्मांड में ऐसा कोई नहीं जो इस अस्त्र का सामना कर सके. हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं आपपर इसका प्रयोग करता हूं.

श्रीराम ने दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया. वह अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समा गया. भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए. उन्होंने श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो चाहें वरदान मांग लें.

श्रीराम ने भरत के पुत्र पुष्कल के साथ युद्ध में मारे गए सभी योद्धाओं का जीवनदान मांगा. दोनों ओर के सारे योद्धा जीवित हो गए. वीरमणि ने यज्ञ का घोड़ा लौटा दिया और राजकाज रुक्मांगद को सौंप कर वह भी शत्रुघ्न के साथ अश्वमेध अभियान में चल पड़े.

संकलन व संपादन : प्रभु शरणम्

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2 COMMENTS

  1. Jinki katha ki mahima ka koi ant nahi uske baare me mere jaisa tuchh maanav apna kya comment de sakta hai. Msi sirf yshi vinti karta hu ki aisi kathaien jitn jyada ho sake utna apne parijano od apne ane wali pidhi ke logo tak pahunchane ka vikalp dundhna chahiye.
    Jai ho sanatan dharm ki.

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