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बालकांडः ब्राह्मण-संत समाज वंदना

बंदउँ प्रथम महीसुर चरना।
मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी।
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥

भावार्थः पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वंदना करता हूं, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं. फिर सब गुणों की खान संत समाज को प्रेम सहित सुंदर वाणी से प्रणाम करता हूं.

साधु चरित सुभ चरित कपासू।
निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
बंदनीय जेहिं जग जस पावा॥

भावार्थः संतों का चरित्र कपास के जीवन के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है. कपास की डोडी नीरस होती है वैसे ही संत के चरित्र में विषयों के प्रति आसक्ति नहीं होती. संसार के भौतिक रस के प्रति उनका झुकाव नहीं होता और वे स्वभाव से नीरस होते हैं.

कपास उज्ज्वल होता है. संत का हृदय भी अज्ञान और पापरूपी अन्धकार से रहित होता है. इसलिए वे विशद हैं. कपास में तंतु होते हैं जो एक दूसरे को बांधकर रखते हैं. उसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भंडार होता है, इसलिए वह गुणमय हैं.

कपास की प्रकृति और संत की प्रवृति एक जैसी है. कपास लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर वस्त्र का रूप लेता है फिर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है.

सूत के धागे का स्वभाव है तो इतना सरल है कि वह सुई द्वारा किए गए छेद को भी अपना तन देकर ढंक देता है. उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्र रूपी दोषों को ढंकता है. इसी कारण उसे जगत में वंदनीय यश प्राप्त होता है.

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