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मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा।
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥

भावार्थः संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज है, जहाँ राम भक्तिरूपी गंगा की धारा हैं और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वती हैं.

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी।
करम कथा रबिनंदनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी।
सुनत सकल मुद मंगल देनी॥

भावार्थः विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली सूर्यपुत्री यमुना हैं और भगवान विष्णु और शंकर की कथाएं त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनंद और कल्याणों को देनेवाली हैं.

बटु बिस्वास अचल निज धरमा।
तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा।
सेवत सादर समन कलेसा॥

भावार्थः अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज है. वह हर जगह, हर समय सभी को सहज ही प्राप्त हो सकता है. उसके आदरपूर्वक सेवन से क्लेशों का अंत करने वाला है.

अकथ अलौकिक तीरथराऊ।
देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥

वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देनेवाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है.

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