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भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ:- भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश प्राप्त करते हैं. एक ओर अमृत, चन्द्रमा, गंगा और साधु हों दूसरी ओर विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध. सभी इनके गुणों-अवगुणों से अच्छी तरह परिचित हैं लेकिन जिसे जो भाता है, वह उसे ही चुनता है.

संत को गंगा भाएगी तो असंत कर्मनाशा को सर्वश्रेष्ठ बता सकते हैं. संत अपने आचरण और वाणी से अमृतवर्षा करेंगे तो असंत विष समान अप्रिय करेंगे. संत चंद्रमा की शीतलता धारण करेंगे तो असंत को अग्नि का विध्वंस चाहिए. जैसी प्रकृति वैसी प्रवृति.

दोहा :

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

भावार्थ:- भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है. अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में.

चौपाई :

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ॥1॥

भावार्थ:- दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएं- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं. इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता.

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना ॥2॥

भावार्थ:- ब्रह्मा ही सृष्टिकर्ता हैं इसलिए भले और बुरे दोनों ही स्वभाव के लोग उनके पैदा किए हुए ही हैं पर उनके गुण और दोषों को विचारकर वेदों ने उन्हें अलग-अलग कर दिया है. वेद-पुराण और इतिहास कहते हैं कि यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है.

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