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प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू।।
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥3॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥

भावार्थ:-जहां जगत को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए तुषार या ओले के समान श्रीरामचन्द्रजी रूपी सुंदर चंद्रमा प्रकट हुए. सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और कल्याण की मूर्ति मानता हूं.

मैं उन्हें मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूं. अपने पुत्र का सेवक जानकर वह मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी प्रसंशा पाई तथा श्रीरामजी के माता और पिता होने के कारण उनकी महिमा असीम है.

सोरठा :
बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

भावार्थ:- मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभु के बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया.

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