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चौपाई :
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

भावार्थ:- मणि, माणिक और मोती जैसे सुंदर रत्न साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पा सकते जैसी शोभा उन्हें राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर पर मिलेगी.

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥

भावार्थ:- इसी तरह बुद्धिमान लोग कहते हैं कि अच्छे कवि की कविता का सृजन कहीं और होता है और उसे शोभा कहीं और मिलती है.

अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न कविता वहां शोभा पाती है जहां उसका विचार-प्रचार तथा उसमें व्यक्त आदर्श को ग्रहण और अनुसरण करने वाले लोग हों. कवि द्वारा स्मरण करते ही उसकी भक्ति से बंधी सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं.

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥

भावार्थ:- सरस्वतीजी के दौड़कर आने से उन्हें जो थकावट होती है उसे दूर करने का एक ही उपाय है, रामचरित रूपी सरोवर में स्नान कराना.

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