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“थम जा!” वो चिल्लाया। मैं नहीं रुका, आह्वान ज़ारी रखा।
“रुक जा, मैं कहता हूँ रुक जा।” बाबा सोनिला ने गुहार लगाई।
“बोलो बाबा?” मैंने कहा। “बदल कर ले” उसने कहा,
समझौता, अदला-बदली करके समझौता।
“कैसी बदल बाबा?” मैंने पूछा।
“चार मन सोना है मेरे पास  सब ले ज।” वो मुस्कुरा के बोला,
“नहीं बाबा। सोना अपने पास ही रखो” मैंने कहा।
‘कैसा मानुष है रे तू? और क्या चाहिए तुझे?” उसने कहा।
“इनको स्वतंत्र कर दो!” मैंने कहा। “असम्भव!” वो चिल्लाया।
“तब मैं विवश हूँ बाबा” मैंने कहा और मुंह फेर लिया। अब बाबा बेचैन हो गया। मैंने फिर से अस्थियों की माला उठायीं।
“अच्छा! रुक जा!” उसने कहा।
“सुन! बालक! मैंने अपना जीवन लगा दिया। तू मेरी सिद्धियाँ ले ले। मैं अपना सिद्ध-भाण्ड तुझे दे देता हूँ”। एक पल के लिए मैने सोचा, क्या लालच है, हर्र लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा आये। बाबा को लगा मैं झांसे में आ गया, वो मुस्कुराया।
मैं भी सोचने का नाटक कर रह था।
“नहीं बाबा!” मैंने कहा। अब बाबा की साँसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे।
“और क्या चाहिए तुझे?” उसने पूछा। “कुछ नहीं, इनकी मुक्ति।” मैंने कहा।
बाबा ने जैसे अब अपने घुटने टेक दिए थे।
उसने अपना झोला कंधे से निकाला और उसका मुंह खोल दिया।  खोलते ही एक बड़ा सा भुजंग फन फैलाये आ गया बाहर।
ज़बरदस्त सांप, लम्बा, क्या फन उसका। सुनहरा और चमकदार। जागृत अलख(धूनी) की रौशनी में स्वर्णहार सा प्रतीत हो रहा था।
“दुमुक्ष?” मैंने कहा। उसने मेरी ओर फन किया। फिर बाबा सोनिला को देखा।
“आओ दुमुक्ष” मैंने कहा। और दुमुक्ष भाग छूटा जैसे क़ैद से। मेरे समक्ष आया और एक ज़बरदस्त फुफकार मारी। जैसे ही वो फुफकारा और वहाँ अन्य सर्प भी प्रकट हुए।
उसने फिर से फुफकार मारी। और अपने बाएं चल पड़ा,  जहां पत्थर पड़े थे। मैं समझ गया वो अपनी प्रेयसी उर्रुन्गी से मिलने जा रहा था।

दुमुक्ष ने फुफकार मारी सारे पत्थर हटने लगे। मैं और सोनिला बाबा देखते रहे वो दृश्य। उर्रुन्गी भूमि से बाहर निकली नागिन रूप में। उसने दुमुक्ष को देखा। दुमुक्ष ने उसको देखा। और फिर कितनाविस्मयकारी मिलन था। कितना सुकून मुझे। मैं तो धन्य हो गया। वे फन से फन लड़ाते भूमि में चले गए। रह गए अब हम दोनों बाबा सोनिला और मैं।
मेरा उद्देश्य पूर्ण हो चुका था। अब मैं दौड़ा और सीधा बाबा सोनिला के क़दमों में जा गिरा। क्योंकि वह सैकड़ों साल की उम्र वाले महान तांत्रिक थे। उनका सम्मान जरुरी था। मैं उनके क़दमों पर गिरा था। मेरे सर पर हाथ रखा बाबा ने।
“उठो” वे बोले। मैं हतप्रभ सा उठ गया।
“तुमने वही किया जो एक सच्चा साधक करता है!” वे बोले। मैं दम्भ में भर चला था, कृत्य-दुष्कृत्य में भेद नहीं कर सका” वे बोले। “और तुम! तुम डटे रहना, बहुत आयेंगे ऐसे मेरे जैसे बाबा। अपना प्रायश्चित करने जो मेरी तरह मोह और अहंकार में बंधे हैं। बाबा सोनिला ने कहा और विलुप्त हो गए। मेरे देखते ही देखते धुएं के सामान गायब होते चले गए बाबा।

वे लोप हुए तो नाग-पुरुष दुमुक्ष और उर्रुन्गी मेरे समक्ष प्रकट हुए। उनकी प्रसन्नता से बड़ा कोई खजाना नहीं लगा मुझे।  धनपति कुबेर का खजाना भी फीका ही लगा।

“आपके ऋणी रहेंगे हम सर्वदा!” दुमुक्ष ने कहा। मैं शांत रहा।
उर्रुन्गी ने नमस्कार के मुद्रा में हाथ जोड़े और कहा “हम प्रत्येक नाग-पंचमी पर भ्रमणशील रहते हैं कई साधकों के पास।  हम आपके पास भी आयेंगे।” वे दोनों बोले।
लेकिन मैने कहा। हे दुमुक्ष! यहाँ एक नाग-मंदिर बनेगा, आप उस पर आशीष रखें।” भविष्य में वहाँ एक मंदिर बना दिया गया। आज वहाँ एक पुजारी भी हैं।  मंदिर में श्रध्दालु आते रहते हैं। मंदिर ख्याति को प्राप्त होने लगा है। ये सब उसी नाग-युगल के आशीष के कारण है। आशा है आपको तंत्र युद्ध की यह कथा पसंद आई होगी।

जय औघड़नाथ। हर हर महादेव

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