परशुराम ने कार्तवीर्य का वध कर दिया तो उसके बेटों सौ पुत्र परशुराम को मारने के लिए उपस्थित हुए. पर परशुराम ने पल भर में अपने दिव्य फरसे से उन सब का वध कर दिया.

परशुराम के प्रहार से तत्काल 95 पुत्र मारे गए. शेष पांच बुरी तरह भयभीत हो अवसर देखकर भाग खड़े हुए. परशुराम अकृतवर्ण को अपने साथ लेकर नर्मदा में स्नान के बाद शिवलोक को चले.

परशुरामजी ने नंदी की आज्ञा से अंदर प्रवेश किया. परशुराम शिव मंदिर में प्रवेश कर रहे थे. तब गणेशजी ने उनसे नम्रतापूर्वक कहा कि आप थोड़ी प्रतीक्षा करें. इस समय महादेवजी मां जगदम्बा के साथ विश्राम कर रहे हैं.

मुनिवर, मैं आपके आने की सूचना उन्हें देता हूं. क्षण भर में उनकी आज्ञा लेकर आपके पास आता हूँ फिर मैं स्वयं ही आपको लेकर चलूंगा. बस आज्ञा मिलने तक आप यहीं प्रतीक्षा करें.

परशुराम ने कहा- भगवान शंकर और मां पार्वती दोनों को प्रणामकर मैं तुरंत ही अपने घर लौट जाउंगा. आप उन तक मेरा प्रणाम पहुंचा दीजिए. मैंने शिवजी की कृपा से कार्तवीर्य और सुचंद्र को पुत्रों और बंधुओं सहित मार गिराया.

गणेशजी ने कहा- ठीक है. मैं उनको सूचना देकर आता हूं लेकिन परशुराम ने उन्हें यह कहकर मना कर दिया कि तुम अभी बालक हो. प्रतीक्षा की आवश्यकता नहीं. मैं खुद ही भीतर जाकर उनसे मिल लेता हूं.

गणेशजी ने कहा- आप तो ज्ञानी हैं. आपको क्या बताना? पति-पत्नी जब एक आसन पर हों या पिता, गुरु या राजा जब अतंरंग क्षणों में हो तो उन्हें न तो बाधा पहुंचानी चाहिए और न उन्हें देखना चाहिए.

यह कहते हुए विनायक उनका रास्ता रोक कर खड़े हो गए. पहले तो परशुराम और विनायक के बीच कहा सुनी हुई और फिर हाथों की खींचतान आवाज सुनकर कार्तिकेय वहां आये और दोनों को अपने हाथों से पकड़ कर अलग-अलग कर दिया.

परशुराम स्वभाव से ही क्रोधी थे. वह गणेशजी पर बहुत क्षुब्ध हो गए और परशु लेकर प्रहार के लिए दौड़े. गजानन ने जब देखा कि परशुराम गुस्से में भरकर अपना परशु चलाने वाले हैं तो उन्होंने अपने हाथों से परशुराम को उठा लिया और घुमाकर ब्रह्माण्ड का चक्कर लगवाया.

परशुराम भयभीत हो गए. तब गणेशजी ने उन्हें एक बार फिर जहां वह पहले खड़े थे वहीं लाकर खड़ा कर दिया. एक बालक के हाथों इस तरह अपमानित परशुराम हताश थे. वे अपने सामने अविचलित खड़े गणेश के उपर परशु दे मारा.

गणेश जी ने देखा कि यह परशु तो उनके पिताजी ने ही परशुराम को दिया है यदि इसका प्रहार सफल नहीं हुआ तो बात भगवान शिव पर आएगी. इसलिए अपने पिता के दिए परशु के आक्रमण को सफल करने के लिये उन्होंने उसे अपने बांये दांत पर ग्रहण कर लिया.

गणेश का वह बांया दांत टूटकर धरती पर गिरा. उससे ऐसी भयंकर आवाज हुई कि सम्पूर्ण सागरों और द्वीपों सहित धरातल कांप उठा. सभी लोकों के लोग और स्वर्ग में देवगण घबरा गये.

कार्तिकेय रोने लगे तथा वहां भयानक कोलाहल मच गया. यह सब इस शोर-शराबे से भगवान शंकर और पार्वतीजी बाहर निकल आये. महादेव ने गणेशजी को देखा. उनका मुंह तिरछा हो गया था और केवल एक ही दांत बचा था.

पार्वतीजी ने कार्तिकेय से कारण पूछा तो उन्होंने सारी कहानी सुना दी. पार्वतीजी को बड़ा क्रोध आया. उन्होंने शिवजी से परशुराम के इश धृष्टता के लिए कड़वे वचन में शिकायत की.

देवी बोलीं- यह भार्गव आपका शिष्य है तो पुत्र समान हुआ.आपसे इसने त्रिलोक को जीतने वाला तेज प्राप्त किया. कार्तवीर्य को आपके दिए बल से जीता. उसकी गुरुदक्षिणा देने आया है. आपके पुत्र के दांत को आपके ही दिए परशु से तोड़कर गिरा दे. यही दक्षिणा है?

आप अच्छे गुरु हैं अपने शिष्य के कार्य से प्रसन्न होंगे. पर मैं अब यहां नहीं रहूंगी क्योंकि आपने मेरा अपमान कर दिया है. मैं अपने दोनों पुत्रों को लेकर अपने पिताजी के घर चली जाउंगी.

महादेव ने पार्वतीजी के बातों का कोई उत्तर न देकर श्री कृष्ण का स्मरण किया. अगले ही क्षण श्रीकृष्ण और श्री राधाजी वहां उपस्थित थे. कुछ क्षणों के लिये विवाद रुक गया और स्वागत के पश्चात पार्वतीजी अपने दोनों पुत्रों का परिचय कराने लगीं.

पार्वतीजी बोलीं- यह गणेश और कार्तिकेय हैं. इस पर श्रीकृष्ण ने कहा कि एक बार इनका मस्तक छिन्न हो गया था इसलिए हाथी के सिर को जोड़ा गया और ये गजानन कहलाए. चतुर्थी के चन्द्रमा को गणेश ने अपने ढ़ाल में धारण किया तो ढालचंद्र कहलाए.

विघ्नों का नाश करने वाले गणेश के ऊपर आज जो परशुराम ने प्रहार किया उससे एक दांत टूटकर गिर गया. अब वे एकदंत के रूप में प्रसिद्ध हो जाएंगें और यह चेहरा जो थोड़ा टेढ़ा हो गया है उसके चलते इन्हें वक्रतुंड के नाम से जाना जायेगा.

मैंने इन्हें पहले ही यह वरदान दे दिया है कि सभी देवताओं से पहले इनकी ही पूजा होगी और संकट में जो कोई इनको याद करेगा उनके कार्य सिद्ध हो जाएंगे. श्रीकृष्ण ने गजानन की अनेक प्रकार से प्रशंसा की.

पार्वतीजी यह सुनकर बहुत प्रसन्न और विस्मित भी हुईं. राधाजी ने गणेशजी को उठाकर अपनी गोद में बैठा लिया. उन्होंने गणेश के चेहरे पर जो हाथ फिराया उससे गणेश के सारे घाव भर गये. उधर परशुराम ने भगवान श्री कृष्णचन्द्र की बड़ी स्तुति की.

श्रीकृष्ण प्रसन्न हुए और परशुराम से कहा- जाओ अपने आश्रम को लौट जाओ और पिता की सेवा करो. जो समय बचे उसमें तपस्या करो. आज तुम मेरे प्रसाद से सिद्ध हो गये हो.

कुछ वर्षों में मेरा कवच तुम्हें सिद्ध हो जायेगा. यह कहकर श्रीकृष्ण ने गणेश को राधाजी की गोद से उठा लिया और परशुराम भगवान शिव और पार्वती को प्रणामकर तथा उनसे आशीर्वाद व क्षमा प्राप्त कर अपने आश्रम को चल दिए.
शेष कथा आगे….

संकलनः सीमा श्रीवास्तव
संपादनः राजन प्रकाश

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