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साधु बाबा ने चोर को अपने पास में बैठाकर उसे इस तरह प्रेम से खिलाया, जैसे कोई माँ भूख से बिलखते अपने बच्चे को खिलाती है. उनके व्यवहार से चोर निहाल हो गया.

सोचने लगा- एक मैं हूं और एक ये बाबा है. मैं चोरी करने आया और ये प्यार से खिला रहे हैं! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूं. यह भी सच कहा है- आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर. मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूं.

मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं जो समय पाकर जाग उठती हैं. जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं. चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गए.

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उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृतवर्षा सी दृष्टि का लाभ मिला.

तुलसीदासजी ने कहा है-

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।

साधु की संगति पाकर आधे घंटे के संत समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये. साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा.

फिर उसे लगा कि ‘साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी ! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया!

लेकिन फिर सोचा, ‘साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा. दयालु महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे. संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं.

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