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कश्यप ने समझाने का प्रयास किया- प्रिये, मुझे समस्त वचन याद हैं. मैं प्रजापति दक्ष को दिए वचन को भंग करने से होने वाले पापों से भी परिचित हूं.
मैं वचनभंग नहीं करता बस थोड़ा समय मांगता हूं. यह समय संतान उत्पत्ति के कार्यों के लिए शुभ नहीं है. दिति ने शर्त रख दी कि या तो मुझे तर्कों से संतुष्ट करो या संसर्ग से.
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कश्यप ने समझाया- जीवनभर के पुण्यों का दान करके भी कोई अंर्धांगिनी के ऋण से मुक्त नहीं हो सकता. मोक्ष के लिए इंद्रियों को वश में करना आवश्यक है और यह पत्नी के सहयोग से ही हो सकता है.
संध्याकाल में भूतों के साथ स्वयं महादेव भी विचरण करते हैं. वह आपके बहनोई हैं. उन्हें भले ही कोई न देखे किंतु वह सबको देख सकते हैं.
महादेव को अप्रसन्न करने का दुःसाहस स्वयं नारायण, ब्रह्मदेव में भी नहीं है. लोकाचार का मान रखने के लिए ही सही आप संसर्ग के लिए बाध्य न करें. यह समय उचित नहीं.
दिति के दिमाग पर दो चीजें सवार थीं. एक तो कामवासना, दूसरी अपनी बहन अदिति से श्रेष्ठ संतान की इच्छा. कश्यप ने समझाने का एक प्रयास और किया.
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कश्यप बोले- हे दिति आप प्रजापति दक्ष की पुत्र हैं. समस्त गुणों से युक्त. आपके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं. मैं आपको सर्वश्रेष्ठ संतान प्राप्ति की विधि बता सकता हूं. आप उस पर चलें. वासना और द्वेष की भावना से जन्मी संतान लोकनिंदा का कारण बनती है.
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