श्राद्ध का महीना आरंभ होने पर एक प्रश्न चारों तरफ खूब तैरने लगता है.  श्राद्ध तर्पण की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं? श्राद्ध तर्पण पर यह प्रश्न सबसे ज्यादा अनास्थावान उठाते हैं. सबसे पहली बात तो जिन्हें किसी चीज पर आस्था नहीं, उन्हें आस्थावान बनाया नहीं जा सकता.
और बनाने की आवश्यकता ही क्या. यह पोस्ट उनके लिए है जिन्हें परंपराओं पर आस्था है. जिन्हें आस्था हो उन्हें ही किसी बात के सकारात्मक पक्ष भी दिख सकते हैं. अन्यथा श्राद्ध तर्पण ही क्यों वे हर चीज पर उंगली उठा सकते हैं. सबसे जरूरी बात- यह पोस्ट गंभीर चर्चा करती है। सनातन की पुरानी परंपरा का विश्लेषण बहुत गंभीर प्रश्नों के साथ करती है। तो यदि आप वास्तव में गंभीर चर्चा पसंद करते हैं तो आपके काम की पोस्ट है।
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श्राद्ध तर्पण कैसे पहुंचता है पितरों के पास_ प्रभु शरणं

 

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अब जिन्हें  आस्था न हो वे  तो यह भी कह सकते हैं कि बूढ़े लोग समाज के लिए उत्पादक ही नहीं है. उनकी क्या जरूरत? वे तो बोझ हैं देश के परिवार के संसाधनों पर. भोजन, आवास, दवा, सेवा-टहल पर क्यों खर्च करना. उनका तो जीने का हक छीन लेना चाहिए.

अगर जीने भी दें तो न्यूनतम सुविधाओं के हवाले कर देना चाहिए. वृद्धाश्रमों में छोड़ देना चाहिए. वगैरह, वगैरह. उनके पास इसके भी तर्क होंगे. खैर, अब श्राद्ध तर्पण से जुड़ी कुछ ऐसी बातें होंगी जिसे आपको अच्छे से समझना चाहिए. काम आएगी.

‘श्रद्धया दीयते यत् तत् श्राद्धम्।’ यानी  ‘श्राद्ध’ का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए. पितरों के लिए श्रद्धापूर्वक किए गए पदार्थ-दान (हविष्यान्न, तिल, कुश, जल के दान) का नाम ही श्राद्ध है. श्राद्ध करने की क्रिया श्राद्ध तर्पण भी कहलाती है. श्राद्धकर्म पितृऋण चुकाने का सरल व सहज मार्ग है। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितरगण वर्षभर प्रसन्न रहते हैं।

श्राद्ध-कर्म से व्यक्ति केवल अपने सगे-सम्बन्धियों को ही नहीं, बल्कि ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों व जगत को तृप्त करता है। पितरों की पूजा को साक्षात् विष्णुपूजा ही माना गया है।
श्राद्ध तर्पण की वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती हैं?
प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? सबके कर्म एक जैसे नहीं होते। जो जैसे कर्म करता है वैसी गति मिलती है। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिण्ड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कन्दपुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।
एक बार राजा करन्धम ने महायोगी महाकाल से पूछा–’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिण्डदान किया जाता है तो वह जल, पिण्ड आदि तो यहीं रह जाता है। फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’
भगवान महाकाल ने बताया कि विश्वनियन्ता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध तर्पण की सामग्री उनके अनुरुप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं। दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गयी स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं। वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं।
शरीर के पांच तत्वों, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति–इन नौ तत्वों से उनका शरीर बना होता है।  इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान पुरुषोत्तम  निवास करते हैं। इसलिए देवता और पितर गन्ध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्दतत्व से रहते हैं और स्पर्शतत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वर देते हैं।
पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व। जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सार-तत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।
किस रूप में पहुंचता है पितरों को श्राद्ध तर्पण से भेजा गया आहार ?
नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वेदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं।
यदि पितर देवयोनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है।
यदि गन्धर्व बन गए हैं तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है।
यदि पितर पशुयोनि में हैं तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है।
नागयोनि में वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, राक्षसयोनि में आमिषरूप में, दानवयोनि में मांसरूप में, प्रेतयोनि में रुधिररूप या रक्त के रूप में प्राप्त होता है.
मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता हैं।
जिस प्रकार बछड़ा झुण्ड में अपनी मां को ढूंढ़ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मन्त्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।
अब इस बात का क्या प्रमाण है? फिर आपको एक छोटी सी कथा माता सीता की जाननी चाहिए-
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श्रीराम द्वारा श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मणों में सीताजी ने किए राजा दशरथ व पितरों के दर्शन
श्राद्ध तर्पण कर्म के पूर्ण होने पर जिन ब्राह्मणों को आमंत्रित किया जाता है वे पितरों के प्रतिनिधिरूप होते हैं। यहां पर जन्म से ब्राह्मण नहीं कर्म से ब्राह्मण की बात हो रही है। जो ब्रह्म की आदि परिभाषा से ब्राह्मण का निर्धारण करता है। जिस काल में ब्राह्मणों को आमंत्रित करने का विधान किया गया था उस काल में ब्राह्मण अपने घर-परिवार से दूर देवकार्य या अध्ययन कार्य में लिप्त कोई साधनविहीन पुरुष होता था। उसे अच्छा भोजन करा देने से उसकी तृप्ति होती थी। वह अपने पुण्यकर्मों का एक अंश आशीर्वाद स्वरूप पितरों और श्राद्ध तर्पण करने वाले को दे देता था।
अब यदि आशीर्वाद या पुण्य कर्म जैसी बात पर यकीन न हो तो फिर सनातन की सारी परंपरा ही औचित्यविहीन हो जाएंगी. पुण्यकर्म पर विश्वास न होने से तो फिर पूरी मानवता पर ही विश्वास नहीं रहेगा। इसलिए पुण्यकर्म सर्वकालिक हैं, उसी तरह श्राद्ध तर्पण भी हर युग में महत्वपूर्ण हैं। इस आधार पर कोई इसके महत्व को नहीं झुठला सकता कि इसे कुछ लोगों ने अपनी आय का जरिया बना लिया है। आप कुरीतियों से किसी परंपरा को नहीं तोल सकते। उसके मूल भाव से तोलें। तब समझ आएगा कि क्यों श्राद्ध तर्पण आदि कर्म के बाद भोजन दान आदि की व्यवस्था थी।
मान लीजिए आपने अपने दादा या पिता की स्मृति में किसी को एक छाता ही दे दिया. जब भी वह धूप बारिश में उसका उपयोग करेगा उसे स्मरण होगा कि एक भलेमानुष के कारण उसकी रक्षा हो रही है। इस तरह पुण्यकर्म पहुंचा या नहीं, आप खुद विचारें। आप ने दान का पात्र गलत चुना यह आपकी कमी है, उस परंपरा की नहीं। भरे पेट वाले को भोजन कराने और धनवान को दान का कोई विशेष फल नहीं। आप सुपात्र चुनें लेकिन परंपरा को औचित्यहीन न मानें।    
एक बार पुष्कर में श्रीरामजी अपने पिता दशरथजी का श्राद्ध कर रहे थे। रामजी जब ब्राह्मणों को भोजन कराने लगे तो सीताजी वृक्ष की ओट में खड़ी हो गयीं। ब्राह्मण-भोजन के बाद रामजी ने जब सीताजी से इसका कारण पूछा तो वे बोलीं–
‘मैंने जो आश्चर्य देखा, उसे आपको बताती हूँ। आपने जब नाम-गोत्र का उच्चारणकर अपने पिता-दादा आदि का आवाहन किया तो वे यहां ब्राह्मणों के शरीर में छायारूप में सटकर उपस्थित थे। ब्राह्मणों के शरीर में मुझे अपने श्वसुर आदि पितृगण दिखाई दिए फिर भला मैं मर्यादा का उल्लंघन कर वहां कैसे खड़ी रहती; इसलिए मैं ओट में हो गई।’
वे ब्राह्मण कौन थे? तपस्वी थे। जो राजा के अलावा किसी अन्य से भोजन के अतिरिक्त और कोई दक्षिणा तक ग्रहण न करते थे। वे ब्राह्मण वे थे जिनके आश्रम में जो भी छात्र पढ़ने आता, चाहे वह राजा का पुत्र हो या निर्धन का, सबके साथ एक जैसा व्यवहार होता था। जब तक शिष्य आश्रम में रहता, उसका सारा खर्च गुरू उठाते थे। शिक्षा पूरी होने के बाद ही गुरु दक्षिणा ली जाती थी वह भी श्रद्धा अनुसार। राजा और निर्धन दोनों के पुत्र से एक जैसा नहीं। गुरू तो बताता भी न था कि क्या चाहिए। शिष्य अपने सामर्थ्य अनुसार करता था। ऐसे ब्राह्मण ही ब्राह्मण थे क्योंकि ये ब्रह्म का कार्य करते थे। इसलिए सीताजी को इनमें अपने पितर दिखे।
गरीब और जरूरतमंद को दान करके देखिए, उनकी आंखों में खुशी की चमक में आपको अपनी छवि दिखेगी। आपके शरीर में आपके पितरों का अंश है। क्या यह पर्याप्त नहीं कि पितरों के दर्शन हुए।
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पितर प्रसन्न तो सभी देवता प्रसन्न। श्राद्ध से बढ़कर और कोई कल्याणकारी कार्य नहीं है और वंशवृद्धि के लिए तो पितरों की आराधना ही एकमात्र उपाय है—
आयु: पुत्रान् यश: स्वर्ग कीर्तिं पुष्टिं बलं श्रियम्।
पशुन् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।।
(यमस्मृति, श्राद्धप्रकाश)
यमराजजी का कहना है कि–
–श्राद्ध-कर्म से मनुष्य की आयु बढ़ती है।
–पितरगण मनुष्य को पुत्र प्रदान कर वंश का विस्तार करते हैं।
–परिवार में धन-धान्य का अंबार लगा देते हैं।
–श्राद्ध-कर्म मनुष्य के शरीर में बल-पौरुष की वृद्धि करता है और यश व पुष्टि प्रदान करता है।
–पितरगण स्वास्थ्य, बल, श्रेय, धन-धान्य आदि सभी सुख, स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करते हैं।
–श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करने वाले के परिवार में कोई क्लेश नहीं रहता वरन् वह समस्त जगत को तृप्त कर देता है।
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धन के अभाव में कैसे करें श्राद्ध?
ब्रह्मपुराण में बताया गया है कि धन के अभाव में श्रद्धापूर्वक केवल शाक से भी श्राद्ध किया जा सकता है। यदि इतना भी न हो तो अपनी दोनों भुजाओं को उठाकर कह देना चाहिए कि मेरे पास श्राद्ध के लिए न धन है और न ही कोई वस्तु। अत: मैं अपने पितरों को प्रणाम करता हूँ; वे मेरी भक्ति से ही तृप्त हों।
पितृपक्ष पितरों के लिए पर्व का समय है, अत: प्रत्येक गृहस्थ को अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार पितरों के निमित्त श्राद्ध व तर्पण अवश्य करना चाहिए.

श्राद्ध न करने से होने वाली हानि? 

शास्त्रों में श्राद्ध न करने से होने वाली हानियों का जो वर्णन किया गया है, उन्हें जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शास्त्रों में मृत व्यक्ति के दाहकर्म के पहले ही पिण्ड-पानी के रूप में खाने-पीने की व्यवस्था कर दी गयी है। यह तो मृत व्यक्ति की इस महायात्रा में रास्ते के भोजन-पानी की बात हुई। परलोक पहुंचने पर भी उसके लिए वहां न अन्न होता है और न पानी। यदि सगे-सम्बन्धी भी अन्न-जल न दें तो भूख-प्यास से उसे वहां बहुत ही भयंकर दु:ख होता है।
आश्विनमास के पितृपक्ष में पितरों को यह आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें अन्न-जल से संतुष्ट करेंगे। यही आशा लेकर वे पितृलोक से पृथ्वीलोकपर आते हैं लेकिन जो लोग पितर हैं ही कहां –यह मानकर उचित तिथि पर जल व शाक से भी श्राद्ध नहीं करते हैं, उनके पितर दु:खी व निराश होकर शाप देकर अपने लोक वापिस लौट जाते हैं. बाध्य होकर श्राद्ध न करने वाले अपने सगे-सम्बधियों का रक्त चूसने लगते हैं। फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही-कष्ट झेलना पड़ता है और मरने के बाद नरक में जाना पड़ता है।
मार्कण्डेयपुराण में बताया गया है कि जिस कुल में श्राद्ध नहीं होता है, उसमें दीर्घायु, नीरोग व वीर संतान जन्म नहीं लेती है और परिवार में कभी मंगल नहीं होता है।

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