भगवान श्रीरामचंद्रजी के आशीर्वाद से श्रीरामचरित मानस की शृंखला आरंभ हुई है. प्रभु से प्रार्थना है कि हम भक्तों के दिन का आरंभ श्रीराम सुमिरन से निर्विध्न कराने में समर्थवान बनाएं.
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सबसे पहले ईश्वर की वंदना की परंपरा रही है. ईश्वर वंदना के बाद गुरू वंदना की परंपरा रही है. तुलसीदासजी ने भी बांलकांड में मंगलाचरण के बाद गुरू वंदना की है. मानसपाठ में आज गुरू वंदना.

।।गुरु वंदना।।

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

भावार्थ:- मैं उन गुरु के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में हरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं.

चौपाई :
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुंदर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है. वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है.

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