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बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरम ध्वज धंधक धोरी॥2॥
भावार्थ:- जो श्रीरामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो लोभ, क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करने वाले, धर्मध्वजी धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है.
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥
भावार्थ:- यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूं तो कथा बहुत बढ़ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊंगा. इससे मैंने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है. बुद्धिमान लोग थोड़े ही में समझ लेंगे.
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥4॥
भावार्थ:- मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं.
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥
भावार्थ:- मैं न तो कवि हूं, न चतुर कहलाता हूं. अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूं. कहां तो श्री रघुनाथजी का अपार और वर्णन के बाहर चरित्र और कहां संसार में आसक्त मेरी बुद्धि!
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥
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