कश्यप मुनि संध्या आरती के लिए बैठे थे कि पत्नी दिति ने उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए सहवास की इच्छा जताई. कश्यप ने कहा- गोधूलि बेला है. शिवजी भूतगणों के साथ विचरते हैं. अभी संतान के लिए संसर्ग उचित समय नहीं है. दिति ने जिद पकड़ ली. वह बोली- स्त्री की संतान प्राप्ति की इच्छा को ठुकराना स्वयं ब्रह्मा द्वारा वर्जित है. कश्यप के समझाने पर भी दिति नहीं मानीं. मुनि ने कहा- तुमने शास्त्रों का तर्क देकर कुसमय में संतान की इच्छा की है. इसलिए तुम्हारी संतान असुर होगी.

दिति ने हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु दैत्यों को जन्म दिया. हिरण्याक्ष ने तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे वरदान में मांगा- न देव, न दैत्य न मानव, कोई मुझे पराजित न कर सके. वरदान पाकर हिरण्याक्ष बलशाली हो गया. उसने देवताओं को हराने के बाद श्रीहरि को युद्ध के लिए ललकारा.

श्रीहरि को युद्ध के लिए उकसाने की मंशा से हिरण्याक्ष पृथ्वी को गेंद की तरह लुढकाता हुआ ले गया और रसातल में छिपा दिया. समस्त जीव-जंतु नष्ट हो गए.
पृथ्वी के जलमग्न होने से सृष्टि का विकास रूक गया. ब्रहमा ने श्रीहरि का स्मरण किया और उन्हें छींक आ गई. ब्रह्माजी की नाक से एक वराह (जंगली शूकर) निकला. वह क्षणभर में 10 हजार हाथियों सा विशाल होकर हुंकार भरने लगा. ब्रह्मा समझ गए हिरण्याक्ष वध के लिए श्रीविष्णु ने पशुरूप में अवतार लिया है.

वराह जल में कूद पड़े. पृथ्वी को अपने दांतों में पकड़कर जल के ऊपर स्थापित किया. फिर हिरण्याक्ष के साथ भगवान का हजार वर्ष तक युद्ध चला. अंत में वराह भगवान ने उसका वध कर दिया. इसके बाद उन्होंने मनु को पृथ्वी पर सृष्टि आरंभ करने को कहा.(वराह पुराण की कथा)

संकलन व संपादनः प्रभु शरणम्

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here